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इषुकारीय
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अध्ययन १४ : श्लोक २६-३४ २६.एगओ संवसित्ताणं
एकतः समुष्य
"पुत्रो! पहले हम सब एक साथ रहकर सम्यक्त्व दुहओ सम्मत्तसंजुया। द्वितः सम्यक्त्वसंयुताः।
और व्रतों का पालन करें फिर तुम्हारा यौवन बीत पच्छा जाया ! गमिस्सामो पश्चाज्जातौ ! गमिष्यामः जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार
भिक्खमाणा कुले कुले।। भिक्षमाणाः कुले कुले।। करेंगे।"-पिता ने कहा।" २७.जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं यस्यास्ति मृत्युना सख्यं
पुत्र बोले-"पिता कल की इच्छा वही कर सकता है, जस्स वत्थि पलायणं। यस्य वास्ति पलायनम्। जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से जो जाणे न मरिस्सामि यो जानीते न मरिष्यामि बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं
सो हु कंखे सुए सिया।। स खलु काङ्क्षति श्वः स्यात्।।। नहीं मरूंगा।" २८.अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो अद्यैव धर्मं प्रतिपद्यावहे “हम आज ही उस मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहे
जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। यत्र प्रपन्ना न पुनर्भविष्यावः।। हैं, जहां पहुंच कर फिर जन्म लेना न पड़े। अणागयं नेव य अस्थि किंचि अनागतं नैव चास्ति किंचित् भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैं हम उन्हें अनेक सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं।। श्रद्धाक्षमं नो विनीय रागम् ।। बार प्राप्त कर चुके हैं।२२ राग-भाव को दूर कर
श्रद्धा-पूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न
युक्त है।" २६.पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासः “पुत्रों के चले जाने के बाद मैं घर में नहीं रह
वासिट्ठि! भिक्खायरियाइ कालो। वासिष्ठि ! भिक्षाचर्यायाः कालः। सकता। हे वाशिष्टि !२२ अब मेरा भिक्षाचर्या का काल साहाहि रुक्खो लहए समाहिं शाखाभिवृक्षो लभते समाधि आ चुका है। वृक्ष शाखाओं से समाधि को प्राप्त होता
छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं| छिन्नाभिः शाखाभिस्तमेव स्थाणुम्।। है। उनके कट जाने पर लोग उसे ढूंठ कहते हैं।" ३०.पंखाविहूणो ब्व जहेह पक्खी पक्षविहीन इव यथेह पक्षी "बिना पंख का पक्षी, रण-भूमि में सेना रहित राजा
भिच्चाविहूणो व्व रणे नरिंदो। भृत्यविहीन इव रणे नरेन्द्रः। और जल-पोत पर धन-रहित व्यापारी जैसा असहाय विवन्नसारो वणिओ व्व पोए विपन्नसारो वणिगिव पोते होता है, पुत्रों के चले जाने पर मैं भी वैसा ही हो
पहीणपुत्तो मि तहा अहं पि।। प्रहीणपुत्रोऽस्मि तथाऽहमपि।। जाता हूं।" ३१. सुसंभिया कामगुणा इमे ते सुसंभृताः कामगुणा इमे ते वाशिष्ठी ने कहा-“ये सुसंस्कृत और प्रचुर
संपिंडिया अग्गरसापभूया। सम्पिण्डिता अय्यरसप्रभूताः। शृंगार-रस से परिपूर्ण इन्द्रिय-विषय, जो तुम्हें प्राप्त भुंजामु ता कामगुणे पगामं भुंजीवहि तावत् कामगुणान् प्रकामं हैं, उन्हें अभी हम खूब भोगें। उसके बाद हम
पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ।। पश्चात् गमिष्यावः प्रधानमार्गम् ।। मोक्ष-मार्ग को स्वीकार करेंगे।" ३२.भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ भुक्ता रसा भवति ! जहाति नो वयः पुरोहित ने कहा- “हे भवति !२७ हम रसों को भोग
न जीवियट्ठा पजहामि भोए। न जीवितार्थं प्रजहामि भोगान्। चुके हैं, वय हमें छोड़ता चला जा रहा है। मैं असंयम लाभं अलाभं च सहं च दक्खं लाभमलाभं च सुखं च दु:खं जीवन के लिए भोगों को नहीं छोड़ रहा है लाभ-अलाभ संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं।। संतिष्ठमानश्चरिष्यामि मौनम्।। और सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं
मुनि-धर्म का आचरण करूंगा।" ३३.मा हू तुम सोयरियाण संभरे मा खलु त्वं सोदर्याणां स्मार्षीः वाशिष्ठी ने कहा-“प्रतिस्रोत में बहने वाले बूढ़े हंस
जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी। जीर्ण इव हंसः प्रतिस्रोतोगामी। की तरह तुम्हें पीछे अपने बन्धुओं को याद करना न मुंजाहि भोगाए मए समाणं भुंश्व भोगान् मया समं पड़े, इसलिए मेरे साथ भोगों का सेवन करो। यह दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो।। दुःखं खलु भिक्षाचर्याविहारः।। भिक्षाचर्या और ग्रामानुग्राम विहार सचमुच दुःखदायी है।"
यथा च भवति! तनुजां भुजंगः “हे भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। निर्मोचनीं हित्वा पर्येति मुक्तः। छोड़ मुक्त-भाव से चलता है वैसे ही पुत्र भोगों को
एवमेती जातौ प्रजहीतो भोगान् छोड़ कर चले जा रहे हैं। पीछे मैं अकेला क्यों रहूं, ते हं कहं नाणगमिस्समेक्को?|| तो अहं कथं नानुगमिष्याम्येक:?। उनका अनुगमन क्यों न करूं?"
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