________________
उत्तरज्झयणाणि
३५. छिंदित्तु जालं अबलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाय । थोरेयसीला तवसा उदारा धीरा हु भिक्खायरियं चरति ।। ३६. नहेव कुंचा समइक्कर्मता
तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा । पति पुत्ताय पई य मज्झं ते हं कहं नानुगमिस्समेक्का ? ।। ३७. पुरोहियं तं ससुयं सदारं
सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी ||
३८. वंतासी पुरिसो रायं ! न सो होड पसंसिओ माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि ।।
३६. सर्व जग गइ तुढं
सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जतं नेव ताणाय तं तव ।। ४०. मरिहिसि रायं जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ।। ४१. नाहं रमे पक्खिण पंजरे वा
संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं । अकिंचना उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारंभनियत्तदोसा ।।
४२. दवग्गिणा जहा रण्णे डज्झमाणे जंतुसु । अन्ने सत्ता पमोति रागद्दोसवसं गया।
४३. एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया । उज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसग्गिणा जगं ।।
Jain Education International
२४४
छित्त्वा जालमबलमिव रोहिताः मत्स्या यथा कामगुणान् प्रहाय । धौरेयशीलास्तपसा उदाराः धीराः खलु भिक्षाचर्यां चरन्ति ।। नभसीवा क्रौंचाः समतिक्रामन्तः ततानि जालानि दलित्वा हंसाः । परियान्ति पुत्रौ च पतिश्च मम तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका ?।। पुरोहितं तं समुतं सवार पुरोहित अपने पुत्र और पत्नी के साथ भोगों को छोड़ श्रुत्वाऽभिनिष्क्रम्य प्रहाय भोगान् । कर प्रव्रजित हो चुका है, यह सुन राजा ने उसके कुटुम्बसारं विपुलोत्तमं तद् प्रचुर और प्रधान धन-धान्य आदि को लेना चाहा राजानमभीक्ष्णं समुवाच तब महारानी कमलावती ने बार-बार कहा—
२६
देवी ।।
यान्ताशी पुरुषो राजन् ! न स भवति प्रशंसनीयः । ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनमादातुमिच्छसि ।। सर्वं जगद्यदि त सर्वं वापि धनं भवेत् । सर्वमपि से अपर्याप्त नैव त्राणाय तत्तव ।।
मरिष्यसि राजन् ! यदा तदा वा मनोरमान् कामगुणान् प्रहाय । एकः खलु धर्मो नरदेव ! त्राणं न विद्यते ऽन्यमिहेह किंचित् ।। नाहं रमे पक्षिणी पंजर इव छिन्नसन्ताना चरिष्यामि मौनम् । अकिंचना ऋजुकृता निरामिषा परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता ।।
दवाग्निना यथारण्ये दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते रागद्वेषवशं गताः । ।
अध्ययन १४ : श्लोक ३५-४३
"जैसे रोहित मच्छ जर्जरित जाल को काट कर बाहर निकल जाते हैं वैसे ही उठाए हुए भार को वहन करने वाले प्रधान तपस्वी और धीर पुरुष कामभोगों को छोड़ कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं।” वाशिष्ठी ने कहा- "जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा बिछाए हुए जालों को काट कर आकाश में उड़ जाते हैं वैसे ही मेरे पुत्र और पति जा रहे हैं। पीछे मैं अकेली क्यों रहूं ? उनका अनुगमन क्यों न करूं ?”
|
एवमेव वयं मूढाः कामभोगेषु छताः । दयमानं न बुध्यामहे रागद्वेषाग्निना जगत् ।।
“राजन् ! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती । तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हो—यह क्या है ?"
“यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा । ३०
" राजन् ! इन मनोरम कामभोगों को छोड़ कर जब कभी मरना होगा"। हे नरदेव ! एक धर्म ही त्राण है। उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती ।३३
" जैसे पक्षिणी पिंजड़े में आनन्द नहीं मानती, वैसे ही मुझे इस बन्धन में आनन्द नहीं मिल रहा है। मैं स्नेह के जाल को तोड़ कर अकिंचन, सरल क्रिया वाली", विषय-वासना से दूर और परिग्रह एवं हिंसा के दोषों से मुक्त होकर मुनि-धर्म का आचरण करूंगी।"
३७
" जैसे दावाग्नि लगी हुई है, अरण्य में जीव-जन्तु जल रहे हैं, उन्हें देख राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव प्रमुदित होते हैं । ३८
“ उसी प्रकार कामभोगों में मूच्छित हो कर हम मूढ़ लोग यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार राग-द्वेष की अग्नि से जल रहा है।"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org