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चित्र-संभूतीय
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अध्ययन १३ : श्लोक २६-३४ २६.उवणिज्जई जीवियमप्पमायं उपनीयते जीवितमप्रमादं “राजन् ! कर्म बिना भूल किए (निरन्तर) जीवन को
वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं!। वर्ण जरा हरति नरस्य राजन् !। मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण पंचालराया! वयणं सुणाहि पञ्चालराज ! वचनं शृणु (सुस्निग्ध कांति) का हरण कर रहा है। पंचालराज !
मा कासि कम्माई महालयाई।। मा कार्षीः कर्माणि महान्ति।। मेरा वचन सुन। प्रचुर कर्म" मत कर।" २७.अहं पि जाणामि जहेह साहू ! अहमपि जानामि यथेह साधो ! (चक्री-.) “साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह
जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं। यन्मम त्वं साधयसि वाक्यमेतत् । रहा है, वैसे मैं भी जानता हूं कि ये भोग आसक्तिजनक भोगा इमे संगकरा हवंति। भोगा इमे सङ्गकरा भवंति होते हैं। किन्तु हे आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए
जे दुज्जया अज्जो! अम्हारिसेहिं। ये दुर्जया आर्य ! अस्मादृशैः।। ये दुर्जय हैं।" २८.हत्थिणपुरम्मि चित्ता! हस्तिनापुरे चित्र!
“चित्र मुने! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती ठूणं नरवई महिड्ढियं। दृष्ट्वा नरपतिं महर्द्धिकम् । (सनत्कुमार) को देख भोगों में आसक्त होकर मैंने कामभोगेसु गिद्धेणं कामभोगेषु गृढेन
अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला।" नियाणमसुहं कडं।। निदानमशुभं कृतम्।। २६.तस्स मे अपडिकंतस्स तस्य मेऽप्रतिक्रांतस्य
“उसका मैने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी इमं एयारिसं फलं। इदमेतादृशं फलम्।
का यह ऐसा फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी जाणमाणो वि जं धम्म जानन्नपि यद धर्म
काम-भोगों में मूछित हो रहा हूं।" कामभोगेसु मुच्छिओ।। कामभोगेषु मूछितः ।। ३०.नागो जहा पंकजलावसन्नो नागो यथा पङ्कजलावसन्नः “जैसे पंक-जल (दलदल) में फंसा हुआ हाथी स्थल
दटुं थलं नाभिसमेइ तीरं। दृष्ट्वा स्थलं नाभिसमेति तीरम्। को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा एवं वयं कामगुणेषु गृद्धाः ही काम-गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण-धर्म को
न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो।। न भिक्षोर्मार्गमनुव्रजामः ।। जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते।" ३१.अच्चेइ कालो तूरंति राइओ अत्येति कालस्त्वरन्ते रात्रयः (मुनि-) “जीवन बीत रहा है। रात्रियां दौड़ी जा रही
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। न चापि भोगाः पुरुषाणां नित्याः। हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को उविच्च भोगा पुरिसं चयंति उपेत्य भोगाः पुरुषं त्यजन्ति प्राप्त कर उसे छोड़ देते हैं, जैसे क्षीण फल वाले वृक्ष
दुमं जहा खीणफलं व पक्खी।। द्रुमं यथा क्षीणफलमिव पक्षी।। को पक्षी।" ३२.जइ ता सि भोगे चइउं असत्तो यदि तावदसि भोगान् त्यक्तुमशक्त: “राजन् ! यदि तू भोगों का त्याग करने में असमर्थ है
अज्जाई कम्माई करेहि रायं!। आर्याणि कर्माणि कुरु राजन् !। तो आर्य-कर्म कर। धर्म में स्थित होकर सब जीवों की धम्मे ठिओ सव्वपयाणकंपी धमे स्थितः सर्वप्रजानुकम्पी अनुकम्पा करने वाला बन, जिससे तू जन्मान्तर में
तो होहिसि देवा इओ विउवी।। तस्माद् भविष्यसि देव इतौ वैक्रियी।। वैक्रिय शरीर वाला देव होगा।" । ३३.न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी न तव भोगान् त्यक्तुं बुद्धिः "तुझ में भोगों को त्यागने की बुद्धि नहीं है। तू
गिद्धो सि आरंभपरिग्गहेस। गृद्धोसि आरम्भपरिग्रहेषु। आरम्भ और परिग्रह में३ आसक्त है। मैंने व्यर्थ ही मोहं कओ एत्तिउ विप्पलावो मोघं कृत एतावान् विप्रलापः इतना प्रलाप किया। तुझे आमंत्रित (सम्बोधित) किया।
गच्छामि रायं! आमंतिओ सि।। गच्छामि राजन् ! आमन्त्रितोऽसि ।। राजन् ! अब मैं जा रहा हूं।" ३४.पंचालराया वि य बंभदत्तो पञ्चालराजोपि च ब्रह्मदत्तः पंचाल जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन का
साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। साधोस्तस्य वचनमकृत्वा। पालन नहीं किया। वह अनुत्तर काम भोगों को भोग अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे अनुत्तरान् भुक्त्वा कामभोगान् कर अनुत्तर (अप्रतिष्ठान) नरक में गया। अणुत्तरे सो नरए पविट्रो।। अनुत्तरे स नरके प्रविष्टः।।
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