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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १३ : श्लोक १७-२५ १७.बालाभिरामेसु दुहावहेसु बालाभिरामेषु दुःखावहेषु “राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर
न तं सुहं कामगुणेसु रायं! न तत्सुखं कामगुणेषु राजन् ! काम-गुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों से विरत्तकामाण तवोधणाणं विरक्तकामानां तपोधनानां विरक्त, शील और गुणों में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त
जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ।। यद् भिक्षूणां शीलगुणे रतानाम् ।। होता है।" १८.नरिंद! जाई अहमा नराणं नरेन्द्र ! जातिरधमा नराणां "नरेन्द्र ! मनुष्यों में चांडाल-जाति अधम है। उसमें
सोवागजाई दुहओ गयाणं। श्वपाकजातिद्धयोः गतयोः । हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं। वहां हम चाण्डालों की जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा यस्यामावां सर्वजनस्य द्वेष्यो बस्ती में रहते थे और सब लोग हमसे द्वेष करते
वसीय सोवागनिवेसणेसु ।। अवसाव श्वपाकनिवेशनेषु ।। थे।" १६.तीसे य जाईइ उ पावियाए तस्यां च जातौ तु पापिकायाम् "दोनों ने कुत्सित चाण्डाल जाति में जन्म लिया और
वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु। उषितौ श्वपाकनिवेशनेषु। चांडालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है,
इहं तु कम्माइं पुरेकडाई।। इह तु कर्माणि पुराकृतानि ।। वह पूर्वकृत शुभ कमों का फल है।” २०.सो दाणिसिं राय ! महाणुभागो स इदानीं राजन् ! महानुभागः । हे राजन् ! वर्तमान में “उसी के कारण वह तू
महिड्ढिओ पुण्णफलोववेओ। महर्धिकः पुण्यफलोपेतः। महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, ऋद्धिमान चइत्तु भोगाइ असासयाइं त्यक्त्वा भोगानशाश्वतान् और पुण्य-फल युक्त राजा बना है। इसलिए तू आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि।। आदानहेतोरभिनिष्क्राम।। अशाश्वत भोगों को छोड़कर आदान–चारित्र धर्म
की" आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर।" २१.इह जीविए राय ! असासयम्मि इह जीविते राजन् ! अशाश्वते "राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर" शुभ
धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। 'धणियं तु पुण्यान्यकुर्वाणः। अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर से सोयई मच्चुमुहोवणीए स शोचति मृत्युमुखोपनीतः पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने
धम्मं अकाऊण परंसि लोए।। धर्ममकृत्वा परस्मिल्लोके ।। के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है।" २२.जहेह सीहो व मियं गहाय यथेह सिंहो व मृगं गृहीत्वा "जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है,
मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले। मृत्युर्नर नयति खलु अन्तकाले। उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। न तस्स माया व पिया व भाया न तस्य माता वा पिता वा भ्राता काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर" कालम्मि तम्मिसहरा भवंति।। काले तस्यांशधरा भवन्ति।। नहीं होते-अपने जीवन का भाग दे कर बचा नहीं
पाते।"
पइत्तु भोग पुण्णफलोवभागो
२३.न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न तस्य दुःखं विभजन्ति ज्ञातयः ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव" उसका दुःख
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः। नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं करता है। क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता
कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। करिमेवानुयाति कम।। २४.चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धान्य,
खेत्तं गिहंधणधन्नं च सव्वं। क्षेत्र गृहं धन-धान्यं च सर्वम। वस्त्र आदि सब कुछ छोड कर केवल अपने किये कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ कर्मात्मद्वितीयोऽवशः प्रयाति कों को साथ लेकर सुखद या दुःखद पर-भव में
परं भवं सुंदर पावगं वा।। परं भवं सुन्दरं पापकं वा।। जाता है। २५.तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से तदेककं तुच्छशरीरकं तस्य उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में
चिईगयं डहिय उ पावगेणं। चितिगतं दग्ध्वा तु पावकेन। जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता भज्जा य पुत्ता वि य नायओय भार्या च पुत्रोपि च ज्ञातयश्च (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं।२० दायारमन्नं अणुसंकमंति।। दातारमन्यमनुसङ्क्रमन्ति।।
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