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हरिकेशीय
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अध्ययन १२ : श्लोक ११-१७टि०१५-२५
जीवन चलाने के स्वभाव वाला। 'जायणजीविण' का पाठांतर है २२. जाति और विद्या से युक्त (जाइविज्जोववेया) 'जायण जीवण'। इसमें प्रथमा विभक्ति है।'
चूर्णिकार ने 'विज्जा' का अर्थ वेद किया है। उनका १८. कुछ बचा भोजन (सेसावसेस)
अभिमत है कि यहां छंद रचना की दृष्टि से वेद के स्थान पर चूर्णि के अनुसार इसका अर्थ है—खा लेने के बाद बचा विज्जा का प्रयोग किया है। हुआ भोजन। वृत्ति में इसका अर्थ है—काम में ले लेने के २३. पुण्य-क्षेत्र हैं (सपेसलाई) पश्चात् शेष में बचा-खुचा अर्थात् अन्तप्रांत भोजन। अन्तप्रांत सुपेशल का अर्थ श्रेष्ट या प्रीतिकर किया गया है। किन्तु का एक अर्थ तुच्छ भोजन भी होता है।'
यह ‘सुपावयाई' (श्लोक १४) का प्रतिपक्षी है, इसलिए हमने १९. एकपाक्षिक (एगपक्खं)
इसका अनुवाद 'पुण्य' किया है। यज्ञ का भोजन केवल ब्राह्मणों को दिया जा सकता है। वह यज्ञवाट के ब्राह्मणों ने मुनि हरिकेश से कहा ब्राह्मण ब्राह्मणेतर जातियों को नहीं दिया जा सकता, शूद्रों को तो दिया ही ही श्रेष्ठ क्षेत्र हैं। तुम शूद्र जाति के हो, इसीलिए वेद आदि नहीं जा सकता। इस मान्यता के आधार पर उसे 'एकपाक्षिक' चौदह विद्याओं से बहिर्भूत हो। तुम दानपात्र नहीं हो सकते। कहा गया है।"
कहा हैचूर्णिकार ने यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत कर शूद्रों के सममबाह्मणे दान, द्विगुणं बाबन्धुषु। प्रति किए जाने वाले व्यवहार का निर्देश किया है'
सहस गुणमाचार्य, अनन्तं वेदपारगे।' 'न शूद्राय बलिं दद्यात्, नोच्छिष्टं न हवि:कृतम्।
-अब्राह्मण को दिया गया दान समफल वाला, ब्राह्मण को न चास्योपदिशेद् धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत् ॥' दिया गया दान दुगुने फल वाला, आचार्य को दिया गया दान
शूद्र व्यक्ति को न बलि का भोजन दिया जाए, न सहसगुण फल वाला और वेद के पारगामी विद्वान् को दिया गया उच्छिष्ट भोजन और न आहुतिकृत भोजन ही दिया जाए। उसे दान अनन्त फल वाला होता है। धर्म का उपदेश भी नहीं देना चाहिए और व्रत भी नहीं दिलाना बृहद्वृत्ति में यही श्लोक कुछ पाठभेद से प्राप्त है।१० चाहिए।
२४. उच्च और नीच घरों में (उच्चावयाई) २०. पान (पाणं)
'उच्चावयाइ' के संस्कृत रूप दो बन सकते हैं-उच्चावचानि यह शब्द सामान्य पानी के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका और उच्चव्रतानि। 'उच्चावच' का अर्थ-ऊंच-नीच घर या नाना अर्थ है-द्राक्षापान आदि पानक। सोलहवें श्लोक में प्रयुक्त प्रकार के तप । उच्चव्रत अर्थात् दूसरे व्रतों की अपेक्षा से महान् 'पान' का अर्थ है-कांजि आदि।
व्रत—महाव्रत।" मुनि ऊंच-नीच घरों में भिक्षा के लिए भ्रमण देखें-दसवेआलियं ५।१।४७ का टिप्पण।
करते हैं अथवा नाना प्रकार के तपों और महाव्रतों का आचरण २१. आशा से (आससाए)
करते हैं। जो अधिक वर्षा होगी तो ऊंची भूमि में अच्छी उपज होगी २५. आज (अज्ज) और कम वर्षा होगी तो नीची भूमि में अच्छी उपज होगी– इस इसके संरकृत रूप दो बनते हैं और अर्थ भी दो हैं—१२ आशा से किसान ऊंची और नीची भूमि में बीज बोते हैं।
अज्ज-अद्य-आज।
(ख) १९५४
बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : 'जायणजीविणो' त्ति याचनेन जीवनं- ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : जननं जायते वा जातिः, वेद्यतेऽनेनेति प्राणधारणमस्येति याचनजीवनं, आर्षत्चादिकारः, पठ्यते च—'जायणजीवणो' वेदः, वेदउपवेत्ता, बन्धानुलोम्यात् विज्जोववेया। त्ति, इतिशब्द: स्वरूपपरामर्शकः, तत एवं स्वरूपं, यतश्चैवमतो मह्यमपि ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : सुपेसलाणि...... शोभनं प्रीतिकरं वा। ददध्यमिति भावः, कदाचिदुत्कृष्टमेवासी याचत इति तेषामाशयः स्यादत (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३६०। आह, अथवा जानीत मां यायनजीविनं-याचनेन जीवनशीलं, द्वितीयार्थे ६ उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६। षष्ठी, पाठान्तरे तु प्रथमा।
१०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६१ : २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : सेसावसेसं—यदत्र भुक्तशेष ।
सममश्रोत्रिये दानं, द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : शेषावशेषम् - उद्धरितस्याप्युद्धरितम, अन्तप्रांत- सहस्त्रगुणमाचार्ये अनन्तं वेदपारगे।। मित्यर्थः।
११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : उच्चावचं नाम नानाप्रकार, ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : एगपक्खं नाम नाब्राह्मणेभ्यो दीयते।
नानाविधानि तपांसि, अहवा उच्चावयानि शोभनशीलानि । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : एकः पक्षो-ब्राह्मणलक्षणो यस्य तदेकपक्ष, (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३६२-३६३ : उच्चावयाई त्ति उच्चावयानिकिमुक्त भवति?-यदस्मिन्नुपस्क्रियते न तद् ब्राह्मणव्यतिरिक्ता
उत्तमाधमानि मुनयश्चरन्ति भिक्षानिमित्तं पर्यटन्ति गृहाणि,.... यान्यस्मै दीयते विशेषतस्तु शूद्राय।
यदिवोच्चावचानि-विकृष्टाविकृष्ट तया नानाविधानि, तपासीति ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५।
गम्यते, उच्चव्रतानि वा शेषव्रतापेक्षया महाव्रतानि।। ६. बृहवृत्ति, पत्र ३६१ : 'आससाए' त्ति आशंसया-यद्यत्यन्तप्रवर्षणं भावि १२. बृहवृत्ति, पत्र ३६३ : अज्ज त्ति अद्य ये यज्ञास्तेषामिदानीमारब्धयज्ञाना, तदा स्थलेषु फलावाप्तिरथान्यथा तदा निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया।
यद् वा 'अज्ज' त्ति हे आर्या ।
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