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टिप्पण
अध्ययन १२: हरिकेशीय
१. चाण्डाल कुल (सोवागकुल)
वाले को आर्य और अधर्म-आचरण करने वाले को अनार्य कहा बृहद्वृत्ति के अनुसार 'श्वपाक' का अर्थ चाण्डाल है। जाने लगा। ब्राह्मणों को यहां आचरण की दृष्टि से अनार्य कहा है। चूर्णिकार के अनुसार जिस कुल में कुत्ते का मांस पकाया जाता ६. बीभत्स रूप वाला (दित्तरूवे) है, वह 'श्वपाक-कुल' कहलाता है। श्वपाक-कुल की तुलना 'दित्तरूवे'—इसके संस्कृत रूप दो होते हैं-दीप्तरूप वाल्मीकि रामायण में वर्णित मुष्टिक लोगों से होती है। वे और दृप्तरूप। दीप्त के अनेक अर्थ हैं----भास्वर, तेजस्वी, श्वानमांस-भक्षी, शव के वस्त्रों का उपयोग करने वाले, कांतियुक्त आदि। दृप्त के अर्थ हैं-गर्वयुक्त, बीभत्स, डरावना भयंकर-दर्शन-विकृत आकृति वाले तथा दुराचारी होते थे। आदि । प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द 'दृप्तरूप' बीभत्स रूप वाला के २. (मुणी)
अर्थ में प्रयुक्त है। चूर्णिकार के अनुसार धर्म-अधर्म का मनन करने वाला चूर्णिकार ने 'दीप्तरूप' के दो अर्थ किए हैं-अदीप्तरूप मुनि होता है। बृहद्वृत्तिकार ने सर्व विरति की प्रतिज्ञा लेने वाले अथवा पिशाच की भांति विकृत दीप्तरूप। वृत्तिकार ने 'दीप्त' को मुनि कहा है।
शब्द को बीभत्स वाचक माना है। जिस प्रकार अत्यन्त जलने ३. हरिकेशबल (हरिएसबलो)
वाले फोड़ों के लिए 'शीतल' (शीतला का रोग) शब्द का व्यवहार मुनि का नाम 'बल' था और 'हरिकेश' उनका गोत्र था।
होता है, उसी प्रकार विकृत दुर्दर्शरूप वाले के लिए 'दीप्तरूप' का नाम के पूर्व गोत्र का प्रयोग होता था, इसलिए वे 'हरिकेशबल' प्रयाग हुआ है।" नाम से प्रसिद्ध थे।
७. बड़ी नाक वाला (फोक्कनासे) ४. (पंतोवहिठवगरणं)
_ 'फोक्क' देशी शब्द है। इसका अर्थ है-आगे से मोटा इसमें तीन शब्द हैं—प्रान्त्य, उपधि और उपकरण। प्रान्त्य '
और उभरा हुआ।२ हरिकेशबल की नाक ऐसी ही थी। का अर्थ है-जीर्ण और मलिन। जो वस्त निम्नकोटि की होती ८. अधनंगा (ओमचेलए) है, उसे प्रान्त्य या प्रान्त कहा जाता है। यहां यह उपधि और
ओमचेल का अर्थ 'अचेल' भी हो सकता है। किन्तु यहां उपकरण से संबद्ध है। उपधि का अर्थ है--साध के रखने इसका अर्थ-अल्प या जीर्ण वस्त्र वाला है।३ योग्य वस्त्र आदि। ये धार्मिक शरीर का उपकार करते हैं, ९. पांशु-पिशाच (चुडेल) सा (पंसुपिसायभूए) इसलिए इन्हें उपकरण कहा जाता है।
लौकिक मान्यता के अनुसार पिशाच के दाढ़ी, नख ५. अनार्य (अणारिया)
और रोंए लम्बे होते हैं और वह धूल से सना हुआ होता अनार्य शब्द मूलतः जातिवाचक था। किन्तु अर्थ-परिवर्तन है। मुनि भी शरीर की सार-सम्हाल न करने और धूल से होते-होते वह आचरणवाची बन गया। उत्तम-आचरण करने सने हुए होने के कारण पिशाच जैसे लगते थे।" पांशुपिशाच
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५७ : श्वपाकाः-चाण्डालाः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०३ : शयति श्वसिति वा श्वा श्वेन पचतीति
श्वपाकः। ३. वाल्मीकि रामायण, ११५६१६,२०। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०३ : मनुते मन्यते वा थाऽधानिति
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५७ : मुणति-प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः। ६. वही, पत्र ३५७ : हरिकेशः सर्वत्र हरिकेशतयैव प्रतीतो बलो नाम-
बलाभिधानः। ७. वही, पत्र ३५८ : प्रान्तं-जीर्णमलिनत्वादिभिरसारम्। ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : उपदधाति तीर्थ उपथिः,
उपकरोतीत्युपकरणम्। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३५८ : उपधिः-वर्षाकल्पादिः स एव व उपकरणं
धर्मशरीरोपष्टम्भहेतुरस्येति।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : दित्तरूवे त्ति, दीप्तरूपं प्रकारवचनं,
अदीप्तरूप इत्यर्थः, अथवा विकृतेन दीप्तरूपो भवति पिशाचवत्। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ : दीप्तवचनं त्वतिबीभत्सोपलक्षकम् । अत्यन्तदाहिषु
स्फोटकेषु शीतलकव्यपदेशवत, विकृततया वा दुर्दशमिति दीप्तमिव
दीप्तमुच्यते। १२. वही, पत्र ३५८ : फोक्क त्ति देशीपदं, ततश्च फोक्का-अग्रे स्थूलोन्नता। १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : ओमं नाम स्तोक, अचेलओ वि
ओमचेलओ भवति, अयं ओमचेलगो असर्वांगप्रावृतः जीर्णवासो वा। १४. बृहवृत्ति, पत्र ३५६ : पांशुना-रजसा पिशाचवद् भूतो-जातः
पांशुपिशाचभूतः, गमकत्वात्समासः, पिशाचो हि लौकिकानां दीर्घश्मश्रुनखरोमा पुनश्च पांशुभिः समविध्वस्त इष्टः, ततःसोऽपि निष्परिकर्मतया रजोदिग्धदेहतया चैवमुच्यते।
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