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उत्तरज्झयणाणि
नेमिचन्द्र ने इसी आशय का एक श्लोक उद्धृत किया हैद्यूतेन मद्येन पणाङ्गनाभिः तोयेन भूपेन हुताशनेन । मलिम्लुचेनांशहरे राशी वित्तं च धने स्थिरत्वम् ।। १५. केवल वर्तमान को ही देखने वाला जीव
(पपन्नपरायणे)
प्रत्युत्पन्न का अर्थ है-वर्तमान । जो केवल वर्तमान के लिए एकनिष्ठ है, वह प्रत्युत्पन्नपरायण होता है। केवल वर्तमान को देखने वाला नास्तिक होता है और वह परलोक से सर्वथा निरपेक्ष होकर मानता है— 'एतावानेव लोको ऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः ' —लोक इतना ही है, जितना दृष्टिगोचर होता है। परलोक, स्वर्ग, नरक केवल कल्पना है। १६. मरणान्तकाल में..... शोक करता है (मरणंतम्मि सोयई) नास्तिकता का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी के समय मृत्यु शोक-निमग्न होकर सोचता है-हाय ! अब मुझे यहां से जाना होगा। मैं नहीं जानता कि मैं कहां जाऊंगा। मेरी क्या गति होगी ? मैने अपना सारा जीवन मोड़ से मूर्चित होकर यों ही बिता डाला । वृत्तिकार का मत है कि अत्यन्त नास्तिक व्यक्ति भी मृत्यु-काल में मारणान्तिक वेदना से अभिभूत होकर अपने जीवन पर आंसू बहाता है।" १७. मेमना (अय)
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अध्ययन ७ : श्लोक ६-११ टि० १५-१६ द्वितीय अर्थ के अनुसार वह 'आसुरीय' होना चाहिए। १९. काकिणी के (कागिणिए)
चूर्णि के अनुसार एक रुपये के अस्सीवें भाग तथा विसोवग के चौथे भाग को काकिणी कहा जाता था। वि (वी) सोवग— विशोषक- -देशी शब्द है। यह एक प्रकार का सिक्का था। यह रुपये का बीसवां भाग था।
शान्त्याचार्य ने 'अज' का अर्थ 'पशु तथा प्रस्तावानुसार उरभ्र (मेमना) किया है।" अज शब्द अनेकार्थक है। इसके बकरा, भेड़, मेंढ़ा आदि अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका अर्थ- -भेड़ या मेंढ़ा है। इसके स्थान पर एड़क और उरभ्र ये दो शब्द और यहां प्रयुक्त हैं। एड़क का अर्थ- मेंढ़ा और बकरा भी हो सकता है किन्तु उरभ्र का अर्थ भेड़ व मेंढ़ा ही है १८. आसुरीय दिशा (नरक) की ओर (आसुरियं दिसं)
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जहां सूर्य न हो उसे आसुरिय ( असूर्य) कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ 'आसुरीय' किया गया है। रौद्र कर्म करने वाला असुर कहलाता है। असुर की जो दिशा होती है उसे 'आसुरीय' कहा जाता है। इसका तात्पर्यार्थ है— नरक। वहां सूर्य नहीं होता तथा वह क्रूर कर्म करने वालों की दिशा है इसलिए वह 'आसुरीय' है। तात्पर्य में वह अंधकारपूर्ण दिशा है । प्रथम अर्थ के अनुसार 'असुरिय' पाठ होना चाहिए और
१.
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । (ख) सुखबोधा, पत्र ११८ ।
२. बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ अजः पशुः स चेह प्रक्रमादुरभ्रः ।
३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१: नास्य सूरो विज्जति, आसुरियं वा
नारका, जेसिं चक्खिदियअभावो सूरो ऊद्योतो णत्थि, जहा एगेंदियाणं दिसा भावदिसा खेत्तदिसावि घेप्पति, असतीत्यसुराः, असुराणामियं आसुरीयं अधोगतिरित्यर्थः ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७६ अविद्यमानसूर्याम् उपलक्षणत्वाद्ग्रहनक्षत्रविरहितां च दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दीक् ताम्, अर्थात् भावदिशम्, अथवा रौद्रकर्मकारी सर्वोऽप्यसुर उच्यते,
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शान्त्याचार्य ने लिखा है— बीस कौड़ियों की काकिणी होती है। मोनियर-मोनियर विलियम्स के अनुसार बीस कौड़ियों की अथवा 'पण' के चतुरंश की एक काकिणी होती है। बीस मासों का एक 'पण' होता है और पांच मासों की एक काकिणी ।
इस विवरण से यह स्पष्ट पता लगता है कि उस समय अन्यान्य सिक्कों के साथ-साथ काकिणी, वीसोपग, पण, कौड़ी आदि भी चलते थे । यदि हम रुपये को मध्य - बिन्दु मानकर सोचते हैं तो८० काकिणी २० विसोपग २० पण
४.
-
१६०० कौड़ियां २० कौड़ियां
१/४ वीसोपग १/४ पण अथवा ५ मासा
तौलने के बाटों में गुंजा, काकिणी आदि का उल्लेख हुआ अनुयोगद्वार (सूत्र १३२ ) में सोना, चांदी, रत्न आदि है। काकिणी को सवा रत्ती परिमाण का माना है। यह भी उपर्युक्त तालिका से सही लगता है। पाणिनी के व्याकरण में 'काकिणी' का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि उस समय इस सिक्के का प्रचलन नहीं हुआ होगा। चाणक्य ने ताम्बे की सूची में इसका नाम दिया है। (कौटिलीय अर्थशास्त्र, २।१६) । बौद्ध साहित्य में काकिणी तथा कार्षापण का उल्लेख मिलता है। आठ काकिणी का एक कार्षापण होता था। चार काकिणी के तीन मासे होते थे। कात्यायन ने सूत्र ५।१।३३ पर दो वार्तिकों में काकिणी और अर्ध काकिणी का उल्लेख किया है। वहां एक, डेढ़ और दो काकिणी से मोल ली जाने वाली वस्तु के लिए काकणीक, अध्यर्धकाकणी और द्विकाकणिक प्रयोग सिद्ध किए गए हैं। देखिए - २०१४२ के
५.
६.
७.
१ रुपया
१ रुपया
१ रुपया
१ रुपया
}
१ काकिणी
ततश्चासुराणामियामासुरी या तामासुरीयां दिशम् ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१: कागीणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो, वीसोवगस्स चतुभागो ।
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पाइयसद्दमहण्णव, पृ० १००७ ।
बृहद्वृत्ति, पत्र २७२, 'काकिणिः 'विंशतिकपर्दकाः ।
A Sanskrit English Dictionary p. 267: A small coin or a small sum of money equal to twenty Kapardas or Cowries or to a quarter of a Pana. (क) संयुत्तनिकाय, ३ ।२।३।
(ख) चुल्लसेट्ठि जातक ४, प्रथम खण्ड, पृ० २०३ |
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