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आमुख
कपिल ब्राह्मण था। लोभ की बाढ़ ने उसके मन में विरक्ति अपनी मां को रोते देखा तो इसका कारण पूछा। यशा ने कहाला दी। उसे सही स्वरूप ज्ञात हुआ। वह मुनि बन गया। “पुत्र! एक समय था जब तेरे पिता इसी प्रकार छत्र लगाकर संयोगवश एक बार उसे चोरों ने घेर लिया। तब कपिल मुनि ने दरबार में जाया-आया करते थे। वे अनेक विद्याओं के पारगार्मा उन्हें उपदेश दिया। वह संगीतात्मक था। उसी का यहां संग्रह थे। राजा उनकी विद्याओं से आकृष्ट था। उनके निधन के बाद किया गया है। प्रथम मुनि गाते, चोर भी उनके साथ-ही-साथ राजा ने वह स्थान दूसरे को दे दिया है।" तब कपिल ने कहागाने लग जाते। 'अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए।... "मां ! मैं भी विद्या पढूंगा।" न गच्छेज्जा।।' यह प्रथम श्लोक ध्रुवपद था। मुनि कपिल द्वारा यशा ने कहा—“पुत्र ! यहां सारे ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं। यहां यह–अध्ययन गाया गया था, इसलिए इसे कापिलीय कहा गया कोई भी तुझे विद्या नहीं देगा। यदि तू विद्या प्राप्त करना चाहता है।' सूत्रकृतांग चूर्णि में इस अध्ययन को 'गेय' माना गया है। है तो श्रावस्ती नगरी में चला जा। वहां तेरे पिता के परम मित्र
नाम दो प्रकार से होते हैं :-(१) निर्देश्य (विषय) के इन्द्रदत्त नाम के ब्राह्मण हैं। वे तुझे विद्या पढ़ाएंगे।” आधार पर और (२) निर्देशक (वक्ता) के आधार पर। इस कपिल ने मां का आशीर्वाद ले श्रावस्ती की ओर प्रस्थान अध्ययन का निर्देशक कपिल है, इसलिए इसका नाम कापिलीय किया। पूछते-पूछते वह इन्द्रदत्त ब्राह्मण के यहां जा खड़ा हुआ। रखा गया है।
अपने समक्ष एक अपरिचित यवक को देखकर इन्द्रदत्त ने इसका मुख्य प्रतिपाद्य है--उस सत्य का शोध जिससे पूछा---"तुम कौन हो? कहां से आए हो? यहां आने का क्या दुर्गति का अन्त हो जाए। सत्य-शोध में जो बाधाएं हैं उन पर प्रयोजन है ?" भी बहुत सुन्दर प्रकाश डाला गया है। लोभ कैसे बढ़ता है, कपिल ने सारा वृत्तान्त सुनाया। इन्द्रदत्त कपिल के उत्तर इसका स्वयं अनुभूत चित्र प्रस्तुत किया गया है।
से बहुत प्रभावित हुआ। उसने उसके भोजन की व्यवस्था व्यक्ति के मन में पहले थोड़ा लोभ उत्पन्न होता है। वह शालिभद्र नामक एक धनाढ्य वणिक् के यहां करके अध्यापन उसकी पूर्ति करता है। मन पुनः लोभ से भर जाता है। उसकी शुरू कर दिया। कपिल भोजन करने प्रतिदिन सेठ के यहां जाता पूर्ति का प्रयत्न होता है। यह क्रम चलता है परन्तु हर बार लोभ और इन्द्रदत्त से अध्ययन करता। उसे एक दासी की पुत्री भोजन का उभार तीव्रता लिए होता है। ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों परोसा करती थी। वह हंसमुख स्वभाव की थी। कपिल कभी-कभी लोभ भी बढ़ता है। इसका अन्त तभी होता है जब व्यक्ति उससे मजाक कर लेता था। दिन बीते, उनका सम्बन्ध गाढ़ हो निर्लोभता की पूर्ण साधना कर लेता है।
गया। एक बार दासी ने कपिल से कहा-“तुम मेरे मेरा सर्वस्व उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी में जितशत्रु है। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। मैं निर्वाह के लिए दूसरों के राजा राज्य करता था। उसकी सभा में चौदह विद्याओं का यहां रह रही हूं अन्यथा तो मैं तुम्हारी आज्ञा में रहती।" पारगामी काश्यप नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम यशा इसी प्रकार कई दिन बीते। दासी-महोत्सव का दिन निकट था। उसके कपिल नाम का एक पुत्र था। राजा काश्यप से आया। दासी का मन बहुत उदास हो गया। रात्रि में उसे नींद प्रभावित था। वह उसका बहुमान करता था। अचानक काश्यप नहीं आई। कपिल ने इसका कारण पूछा। उसने कहा----- की मृत्यु हो गई। उस समय कपिल की अवस्था बहुत छोटी थी। “दासी-महोत्सव आ गया है। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। राजा ने काश्यप के स्थान पर दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर मैं कैसे महोत्सव मनाऊं? मेरी सखियां मेरी निर्धनता पर दिया। वह ब्राह्मण जब घर से दरबार में जाता तब घोड़े पर हंसती हैं और मुझे तिरस्कार की दृष्टि से देखती हैं।" कपिल आरूढ़ हो छत्र धारण करता था। काश्यप की पत्नी यशा जब यह का मन खिन्न हो गया। उसे अपने अपौरुष पर रोष आया। देखती तो पति की स्मृति में विहल हो रोने लग जाती थी। कुछ दासी ने कहा-“तुम इतना धैर्य मत खोओ। समस्या का एक काल बीता। कपिल भी बड़ा हो गया था। एक दिन जब उसने समाधान भी है। इसी नगर में धन नाम का एक सेट रहता है।
बृहवृत्ति, पत्र २८६ : .......ताहे ताणवि पंचवि चोरसयाणि ताले कुटुंति, सोऽवि गायति धुवर्ग, “अधुवे असासयंमि दुक्खपउराए। किं णाम तं होज्ज कम्मयं? जेणाहं दुग्गई ण गच्छेज्जा ।।१।।" एवं सव्वत्थ सिलोगन्तरे धुवगं गायति 'अधुवेत्यादि', तत्थ केइ पढमसिलोगे संबुद्धा, के। बीए, एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा पव्वतियत्ति। ...स हि भगवान्
कपिलनामा...धूवकं सगीतवान् । २. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ०७ : गेयं णाम सरसंचारेण, जधा काविलिज्जे-“अधुवे
असासयंमि संसारम्मि दुक्खपउराए। ...न गच्छेज्जा ।।" ३. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४१, वृत्ति : निर्देशकवशाज्जिनवचनं कापिलीयम् ।
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