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आमुख
यह अध्ययन मुनि हरिकेशबल से सम्बन्धित है, इसलिए आ उसने मुनि पर थूक दिया। यक्ष ने यह देखा। उसने सोचाइसका नाम 'हरिएसिज्जं'-'हरिकेशीय' है।
“इस कुमारी ने मुनि की आशातना की है। इसका फल इसे मथुरा नगरी के राजा 'शंख' विरक्त हो मुनि बन गए। मिलना ही चाहिए।" यक्ष कुमारी के शरीर में प्रविष्ट हो गया। ग्रामानुग्राम घूमते हुए एक बार वे हस्तिनागपुर (हस्तिनापुर) कुमारी पागल हो गयी। वह अनर्गल बातें कहने लगी। दासियां आए और भिक्षा के लिए नगर की ओर चले। ग्राम-प्रवेश के दो उसे राजमहल में ले गयीं। उपचार किया गया पर सब व्यर्थ। यक्ष मार्ग थे। मुनि ने एक ब्राह्मण से मार्ग पूछा। एक मार्ग का नाम ने कहा- "इस कुमारी ने एक तपस्वी मुनि का तिरस्कार किया 'हुताशन' था और वह अत्यन्त निकट था। वह अग्नि की तरह है। यदि यह उस तपस्वी के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार कर प्रज्वलित रहता था। ब्राह्मण ने कुतूहलवश उस उष्ण मार्ग की लेती है तो मैं इसके शरीर से बाहर निकल सकता हूं, अन्यथा
ओर संकेत कर दिया। मुनि निश्छलभाव से उसी मार्ग पर चल नहीं।" राजा ने बात स्वीकार कर ली। पड़े। वे लब्धि-सम्पन्न थे। अतः उनके पाद-स्पर्श से मार्ग ठण्डा राजा अपनी कन्या को साथ ले यक्ष-मन्दिर में आया और हो गया। मुनि को अविचल भाव से आगे बढ़ते देख ब्राह्मण भी उसने मुनि को नमस्कार कर अपनी कन्या को स्वीकार करने उसी मार्ग पर चल पड़ा। मार्ग को बर्फ जैसा ठण्डा देख उसने की प्रार्थना की। मुनि ने ध्यान पारा और कहा- “राजन् ! मैं सोचा-“यह मुनि का ही प्रभाव है।" उसे अपने अनुचित कृत्य मुमुक्षु हूं। स्त्री मोक्ष-मार्ग में बाधक है, इसलिए मैं इसका स्पर्श पर पश्चात्ताप हुआ। वह दौड़ा-दौड़ा मुनि के पास आया और भी नहीं कर सकता।" इतना कह मुनि पुनः ध्यानलीन हो गए। उसने अपना पाप प्रकट कर क्षमायाचना की। मुनि ने धर्म का कन्या को मुनि के चरणों में छोड़ राजा अपने स्थान पर उपदेश दिया। ब्राह्मण के मन में विरक्ति के भाव उत्पन्न हुए। वह आ गया। यक्ष ने मुनि का रूप बनाया और राजकन्या का मुनि के पास प्रव्रजित हो गया। उसका नाम सोमदेव था। उसमें पाणिग्रहण किया। रात भर कन्या वहीं रही। प्रभात में यक्ष दूर जाति का अवलेप था। 'मैं ब्राह्मण हूं, उत्तम जातीय हूं'—यह मद हुआ। मुनि ने सही-सही बात कन्या से कही। वह दौड़ी-दौड़ी उसमें बना रहा। कालक्रम से मर कर वह देव बना । देव-आयुष्य राजा के पास गई और उसने यक्ष द्वारा ठगे जाने की बात को पूरा कर जाति-मद के परिपाक से गंगा नदी के तट पर बताई। राजा के पास बैठे रुद्रदेव पुरोहित ने कहा--"राजन् ! हरिकेश के अधिप 'बलकोष्ट' नामक चाण्डाल की पत्नी 'गौरी' यह ऋषि-पत्नी है। मुनि ने इसे त्याग दिया है, अतः इसे किसी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम बल रखा ब्राह्मण को दे देना चाहिए।" राजा ने उसी पुरोहित को कन्या गया। यही बालक हरिकेशबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सौंप दी। वह उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा। कुछ काल
एक दिन वह अपने साथियों के साथ खेल रहा था। बीता। पुरोहित ने यज्ञ किया। दूर-दूर से विद्वान् ब्राह्मण बुलाए खेलते-खेलते वह लड़ने लगा। लोगों ने जब यह देखा तो उसको गए। उन सबके आतिथ्य के लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित दूर ढकेल दिया। दूसरे बालक पूर्ववत् खेलने लगे किन्तु वह की गई। दर्शक मात्र ही रहा। इतने में ही एक भयंकर सर्प निकला। लोगों उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तप कर ने उसे पत्थर से मार डाला। कुछ ही क्षणों बाद एक अलसिया रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी निकला। लोगों ने उसे छोड़ दिया। दूर बैठे बालक हरिकेश ने यह यज्ञ-मण्डप में जा पहुंचे। सब देखा। उसने सोचा-"प्राणी अपने दोषों से ही दुःख पाता उसके बाद मुनि और वहां के वरिष्ठ ब्राह्मणों के बीच जो है। यदि मैं सर्प के समान विषैला होता हूं तो यह स्वाभाविक ही वार्ता-प्रसंग चला उसका संकलन सूत्रकार ने किया है। वार्ता के है कि लोग मुझे मारेंगे और यदि मैं अलसिए की तरह निर्विष माध्यम से ब्राह्मण-धर्म और निर्ग्रन्थ-प्रवचन का सार प्रतिपादित होता हूं तो कोई दूसरा मुझे क्यों सताएगा?" चिन्तन आगे बढ़ा। हुआ है। सर्वप्रथम ब्राह्मणकुमार मुनि की अवहेलना करते हैं जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जाति-मद के विपाक का चित्र परन्तु अन्त में वे उनसे मार्ग-दर्शन लेते हैं। सामने आ गया। निर्वेद को प्राप्त हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। इस अध्ययन में निम्न विषयों पर चर्चा हुई हैमुनि हरिकेशबल श्रामण्य का विशुद्ध रूप से पालन करते हुए १. दान का अधिकारी -श्लोक १२ से १८ । तपस्या में लीन रहने लगे। तप के प्रभाव से अनेक यक्ष उनकी २. जातिवाद
-श्लोक ३६ सेवा करने लगे। मुनि यक्ष-मन्दिर में कायोत्सर्ग, ध्यान आदि ३. यज्ञ
-श्लोक ३८ से ४४। करते। एक बार वे ध्यानलीन खड़े थे। उस समय वाराणसी के ४. जल-स्नान
-श्लोक ३८,४५,४६,४७। राजा कौशिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने वहां आई। पूजा बौद्ध-साहित्य में मातंग जातक (४६७) में यह कथा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर प्रकारांतर से मिलती है। जा टिकी। उनके मैले कपड़े देख उसे घृणा हो आई। आवेश में
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