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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १२ : श्लोक ६-१७ ६. समणो अहं संजओ बंभयारी श्रमणोऽहं संयतो ब्रह्मचारी "मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं, धन व
विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। विरतो धनपचनपरिग्रहात्। पचन-पाचन और परिग्रह से" विरत हूं। यह भिक्षा परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले परप्रवृत्तस्य तु भिक्षाकाले का काल है। मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए
अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि।। अन्नस्यार्थं इहाऽऽगतोस्मि।। यहां आया हूं।" १०.वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य वितीर्यते खाद्यते भुज्यते च “आपके यहां पर यह बहुत सारा भोजन दिया जा
अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । अन्नं प्रभूतं भवतामेतत् । रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है।" जाणाहि मे जायणजीविणु ति जानीत मां याचना-जीविनमिति मैं भिक्षा-जीवी हूं,१७ यह आपको ज्ञात होना चहिए। सेसावसेसं लभऊ तवस्सी।। शेषावशेषं लभतां तपस्वी।। अच्छा ही है कुछ बचा भोजन इस तपस्वी को मिल
जाए।" ११.उवक्खडं भोयण माहणाणं उपस्कृतं भोजनं ब्राह्मणानां (सोमदेव.-.) यहां जो भोजन बना है, वह केवल
अत्तट्ठियं सिद्धिमिहेगपक्खं। आत्मार्थिकं सिद्धमिहैकपक्षम्। ब्राह्मणों के लिए ही बना है। वह एक-पाक्षिक हैन ऊ वयं एरिसमन्नपाणं न तु वयमीदृशमन्नपानं अब्राह्मण को अदेय है। ऐसा अन्न-पान" हम तुम्हें
दाहामु तुझं किमिहं ठिओसि?|| दास्यामः तुभ्यं किमिह स्थितोऽसि?|| नहीं देंगे, फिर यहां क्यों खड़े हो? १२.थलेसु बीयाइ ववंति कासगा स्थलेषु बीजानि वपन्ति कर्षकाः (यक्ष-) “अच्छी उपज की आशा से२१ किसान जैसे
तहेव निन्नेसु य आससाए। तथैव निम्नेषु चाऽऽशंसया। स्थल (ऊंची भूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि एयाए सद्धाए दलाह मज्झं एतया श्रद्धया दद्ध्वं मह्यं में बोते हैं। इसी श्रद्धा से (अपने आपको निम्न भूमि आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं ।। आराधयत पुण्यमिदं खलु क्षेत्रम् ।। और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम) मुझे दान
दो, पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली
नहीं जाएगा।" १३.खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए क्षेत्राण्यस्माकं विदितानि लोके (सोमदेव-) “जहां बोए हुए सारे के सारे बीज उग
जहिं पकिण्णा विरुहति पुण्णा। येषु प्रकीर्णानि विरोहन्ति पूर्णानि। जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जे माहणा जाइविज्जोववेया ये ब्राह्मणा जातिविद्योपेताः जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र
ताइं तु खेत्ताइं सुपेसलाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि।। हैं।"२३ १४.कोहो य माणो य वहो य जेसिं क्रोधश्च मानश्च वधश्च येषां (यक्ष-) "जिनमें क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है,
मोसं अदत्तं च परिग्गहं च। मृषा अदत्तं च परिग्रहश्च। चोरी है और परिग्रह है—वे ब्राह्मण जाति-विहीन, ते माहणा जाइविज्जाविहणा ते ब्राह्मणा जातिविद्याविहीनाः विद्या-विहीन और पाप-क्षेत्र हैं।"
ताइं तु खेत्ताइं सुपावयाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपापकानि।। १५.तुब्मेत्थ भो! भारधरा गिराणं यूयमत्र भो ! भारधरा गिरा "हे ब्राह्मणो ! इस संसार में तुम केवल वाणी का भार
अट्ठ न जाणाह अहिज्ज वेए। अर्थं न जानीथाधीत्य वेदान्। ढो रहे हो। वेदों को पढ़कर भी उनका अर्थ नहीं उच्चावयाई मुणिणो चरंति उच्चावचानि मुनयश्चरन्ति जानते। जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के
ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि।। लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं।" १६.अज्झावयाणं पडिकूलभासी अध्यापकानां प्रतिकूलभाषी (सोमदेव-) “ओ! अध्यापकों के प्रतिकल बोलने
पभाससे किं तु सगासि अम्हं। प्रभाषसे किंतु सकाशेऽस्माकम्। वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या बढ़-बढ़ कर बोल अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं अप्येतद् विनश्यतु अन्नपानं रहा है? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड
न य णं दाहामु तुमं नियंठा !|| न च दास्यामः तुभ्यं निर्ग्रन्थ!|| कर नष्ट हो जाए किन्तु तुझे नहीं देंगे।" १७.समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स समितिभिर्मह्यं सुसमाहिताय (यक्ष-) “मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त
गृत्तीहि गृत्तस्स जिइंदियस्स। गुप्तिभिर्गुप्ताय जितेन्द्रियाय। और जितेन्द्रिय हूं। यह एषणीय (विशुद्ध) आहार यदि जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं यदि मह्यं न दास्यथाऽथैषणीयं तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या किमज्न जण्णाण लहित्य लाहं?|| किमद्य यज्ञानां लप्स्यध्वे लाभम् ?|| लाभ होगा?"
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