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उत्तरज्झयणाणि
२०२ अध्ययन ११ :श्लोक १४-१५ टि०२०-२२ वचन से झगड़ा करना और 'डमर' का अर्थ है-हाथापाई छोड़ते।' करना। दोनों एकार्थक भी माने गए हैं।
२१. जो एकाग्र होता है (जोगवं) बुद्ध-बुद्ध अर्थात् बुद्धिमान्, तत्त्व को जानने वाला। योग शब्द दो धातुओं से निष्पन्न होता है। एक का अर्थ चौदह स्थानों में बुद्ध की स्वतंत्र गणना नहीं है। इसका सम्बन्ध है जुड़ना और दूसरी का अर्थ है समाधि। चूर्णिकार ने योग के सुविनीत के प्रत्येक स्थान से है।
तीन अर्थ किए हैं। -(१) मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति अभिजाइए-अभिजाति का अर्थ है-कुलीनता। जो (२) संयमयोग (३) पढ़ने का उद्योग। कुलीनता रखता है अर्थात् लिए हुए भार का निर्वाह करता है, शान्त्याचार्य ने योग के दो अर्थ किए हैं-धार्मिक प्रयत्न वह अभिजातिग (कुलीन) कहलाता है।
तथा समाधि। हिरिमं-इसका अर्थ है लज्जावान् । लज्जा एक प्रकार का गीता में एक स्थान पर कर्म-कौशल को योग कहा है तो मानसिक संकोच है। वह कभी-कभी मनुष्य को उबार देती है। दूसरे स्थान पर समत्व को योग कहा है। इस प्रकार योग की लज्जाहीन मनुष्य मन के विकृत होने पर अनुचित कार्य कर सत् कर्म विषयक और समाधि विषयक दोनों प्रकार की व्याख्या डालता है, किन्तु लज्जावान् पुरुष उस स्थिति में भी अनुचित मिलती है। धार्मिक-प्रयत्न और समाधि दोनों मोक्ष के हेतु हैं, आचरण नहीं करता। इसलिए लज्जा व्यक्ति का बहुत बड़ा गुण इसलिए दोनों में सर्वथा भेद नहीं है। इसीलिए हरिभद्रसूरि ने है। जो अनुचित कार्य करने में लजाता हो, वह हीमान् अर्थात् मोक्ष से योग कराने वाले समूचे धर्म-व्यापार को योग कहा है।'२ लज्जावान् कहलाता है।
दशवैकालिक ८४२ में कहा है-मुनि को योग करना पडिसंलीणे-इसका अर्थ है प्रतिसंलीन। कुछ लोग दिन चाहिए। वहां योग का मुख्य अर्थ श्रमण-धर्म की आराधना है। भर इधर-उधर फिरते रहते हैं। कार्य में संलग्न व्यक्ति को ऐसा अनगारधर्मामृत में कायक्लेश तप के छह प्रकारों का नहीं करना चाहिए। उसे अपने स्थान पर स्थिरता पूर्वक बैठे निर्देश है-अयन (सूर्य आदि की गति), शयन, आसन, स्थान, रहना चाहिए। इन्द्रिय और मन को भी करणीय कार्य में संलग्न अवग्रह और योग। रखना चाहिए। प्रयोजनवश कहीं जाना भी पड़ता है किन्त ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सम्मुख निष्प्रयोजन इन्द्रिय, मन और हाथ-पैर की चपलता के कारण इट खड़ा होना आतापनायोग है। वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे र-उधर नहीं फिरना चाहिए। प्रतिसंलीन शब्द के द्वारा इसी बैठना वृक्षमूल योग है। शीतकाल में चौराहे पर या नदी के आचरण की शिक्षा दी गई है।
किनारे ध्यान में स्थित होना शीतयोग है। इस प्रकार योग के २०. गुरुकुल में (गुरुकुले)
अनेक भेद हैं। 'गुरुकुल' का अर्थ गच्छ या गण है। यहां कहा गया है २२. दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों से कि मुनि 'गुरुकुल' में रहे अर्थात् गुरु की आज्ञा में रहे, सुशोभित होता है दुहओ वि विरायइ) स्वच्छन्द विहारी होकर अकेला न विचरे। गुरुकुल में रहने से शंख भी स्वच्छ होता है और दूध भी स्वच्छ होता है। जब उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र में स्थिरता शंख के पात्र में दूध रखा जाता है तब दूध पात्र की स्वच्छता के आती है। वे धन्य हैं जो जीवनपर्यन्त 'गुरुकुल-वास' नहीं कारण अधिक स्वच्छ हो जाता है। वह न तो झरता है और न
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १९७ : कलह एव डमर कलहडमर, कलहेति ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : आयरियसमीवे अच्छति.... आह हि
वा भंडणेति वा डमरेति वा एगट्ठो, अथवा कलहो वाचिको डमरो णाणस्स होइ भागी थिरयरगो दंसणे चरिते य। हत्थारंभो।
धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति।। बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : 'बुद्धो' बुद्धिमान्, एतच्च सर्वत्रानुगम्यत एवेति ८. वही, पृ० १९८ : जोगो मणजोगादि संजमजोगो वा, उज्जोगं पठितव्वते न प्रकृतसङ्ख्याविरोधः।
करेइ। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ : अभिजाणते, विणीतो कुलीणे य।।
। य। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : योजनं योगो-व्यापारः, स चेह प्रक्रमाद्धर्मगत (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : अभिजातिः—कुलीनता ता गच्छति
एव तद्वान, अतिशायने मतुप्, यद्वा योगः-समाधिः सोऽस्यास्तीति उत्क्षिप्तभारनिर्वाहणादिनेत्यभिजातिगः।
योगवान्। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७: ही लज्यायां, लज्जति अचोच्खमायरंतो।।
१०. गीता, २५०: योगः कर्मसु कौशलम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : ही:-लज्जा सा विद्यतेऽस्य हीमान्।
११. वही, २४८ : समत्वं योग उच्यते। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७, १६८ : पंडिसंलीणो आचार्यसकासे
१२. योगविंशिका-१ : मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्योवि धम्मवावारो। इंदियणोइंदिएहिं।
१३. अनगारधर्मामृत ७।३२।६८३ : (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : 'प्रतिसंलीनः'-गुरुसकाशेऽन्यत्र वा कार्य । विना न यतस्ततश्चेष्टते।
ऊर्ध्वार्काद्ययनैः शवादिशयनैर्वीरासनाद्यासनैः, ६. बृहवृत्ति, पत्र ३४७ : गुरूणाम्-आचार्यदीनां कुलम्-अन्चयो गच्छ
स्थानैरेकपदाग्रगामिभिः अनिष्टीवाग्रमावग्रहः । इत्यर्थः गुरुकुलं तत्र, तदाज्ञोपलक्षणं च कुलग्रहणं......किमुक्तं भवति?.
योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत् तनोः, ....गुर्वाज्ञायामेव तिष्ठेत्।
कायक्लेशमिदं तपोऽर्युपमिती सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत् ।।
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