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पता।
बहुश्रुतपूजा
२०५ अध्ययन ११ : श्लोक २३-२८ टि० ३२-३८ ३२. सहसचक्षु (सहस्सक्खे)
और (२७) रेवती। ___इसका परम्परागत अर्थ यह है कि इन्द्र के पांच सौ ३६. सामाजिकों (समुदायवृत्ति वालों) का कोष्ठागार मन्त्री होते हैं। राजा मन्त्री की आंखों से देखता है, अपनी (सामाइयाणं कोट्ठागारे) नीति निश्चित करता है, इसलिए इन्द्र को 'सहसाक्ष' कहा गया आजकल जैसे सामुदायिक अन्न-भण्डार होते हैं, है। जो हजार आंखों से देखता है, इन्द्र अपनी दो आंखों से उसी प्रकार प्राचीन काल में भी सामुदायिक अन्न-भण्डार होते उससे अधिक देख लेता है, इसलिए वह 'सहसाक्ष' कहलाता थे। उनमें नाना प्रकार के अनाज रखे जाते थे। चोर. अग्नि.
चूहों आदि से बचाने के लिए उनकी पूर्णतः सुरक्षा की जाती थी। ३३. पुरों का विदारण करने वाला (पुरंदरे) उन अन्न-भण्डारों को 'कोष्ठागार' या 'कोष्ठाकार' कहा जाता
चूर्णि में पुरन्दर की व्याख्या नहीं है। शान्त्याचार्य ने था। इसका लोक-सम्मत अर्थ किया है-इन्द्र ने पुरों का विदारण ३७. (श्लोक २७) किया था, इसलिए वह 'पुरन्दर' नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रस्तुत श्लोक में जम्बू वृक्ष की उपमा से बहुश्रुत को पुरं-दर-पुरों को नष्ट करने वाला। ऋग्वेद में दस्युओं या दासों उपमित किया है। जम्बू वृक्ष जम्बूद्वीप में अवस्थित है। इस द्वीप के पुरों को नष्ट करने के कारण इन्द्र को 'पुरन्दर' कहा गया का अधिपति है अनादृत नाम का व्यन्तर देव। जम्बू वृक्ष इसी है।
देव का निवास स्थान है। इस वृक्ष का अपर नाम है-सुदर्शना। ३४. उगता हुआ (उत्तिट्टते)
यह वस्तुतः पृथ्वीकायिक होता है। यह द्रुम की अनुकृति वाला चूर्णिकार ने मध्याह्न तक के सूर्य को उत्थित होता हुआ होने के कारण द्रुम कहलाता है। माना है। उस समय तक सूर्य का तेज बढ़ता है। मध्याह्न के विशेष विवरण के लिए देखें-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति पश्चात् वह घटने लग जाता है। इसका दूसरा अर्थ 'उगता हुआ' ४१४६-१६०।। किया गया है। उगता हुआ सूर्य सोम होता है।
३८. (सलिला, सीया नीलवंतपवहा) बृहद्वृत्ति के अनुसार उगता हुआ सूर्य तीव्र नहीं होता, सलिला --यहां सलिला का प्रयोग नदी के अर्थ में किया बाद में वह तीव्र हो जाता है, इसलिए 'उत्तिष्टन्' शब्द के द्वारा गया है। बाल सूर्य ही अभिप्रेत है।
सीया नीलवंतपवहा---नीलवान मेरु पर्वत के उत्तर में ३५. नक्षत्र (नक्खत्त)
अवस्थित वर्षधर पर्वत है। शीता नदी इस पर्वत से प्रवाहित होती नक्षत्र सताईस हैं। उनके नाम ये हैं
है। यह सबसे बड़ी नदी है और अनेक जलाशयों से व्याप्त (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी है।२ (५) मृगशिर (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसू (८) पुष्य (६) अश्लेषा वर्तमान भूगोल-शास्त्रियों के अनुसार चीन, तुर्किस्तान (१०) मघा (११) पूर्वा फल्गुनी (१२) उत्तरा फल्गुनी (१३) हस्त के चारों ओर स्थित पर्वतों से कई नदियां निकलती हैं, जो (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा 'तकलामकान' मरुस्थल की ओर जाती हैं और अन्त में इसी (१६) मूल (२०) पूर्वाषाढा (२१) उत्तराषाढा (२२) श्रवण मरुस्थल की राह में सूख जाती हैं। काशगर नदी और (२३) घनिष्ठा (२४) शतभिषक् (२५) पूर्वभद्रपदा (२६) उत्तरभद्रपदा यारकन्द नदी क्रमशः 'तियेन-शान' और पामीर से निकलती १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : सहस्सक्खेत्ति पंच मंतिसयाई देवाणं ७. वही, पत्र ३५१ : नाना-अनेकप्रकाराणि धान्यानि-शालिमुद्गादीनि
तरस, तेसिं सहरसो अक्खीणं, तेसिं णीतिए दिट्ठमीति, अहवा जं तैः प्रतिपूर्णी-भृतः नानाधान्यप्रतिपूर्णः । सहस्सेण अक्खाणं दीसति तं सो दोहिं अक्खीहिं अब्भहियतरायं पेच्छति। ८. वही, पत्र ३५१ : सुष्टु-प्राहरिकपुरुषादिव्यापारणद्वारेण रक्षितःबृहद्वृत्ति, पत्र ३५० : लोकोक्त्या च पृरणात् पुरन्दरः।
पालितो दस्युमूषिकादिभ्यः सुरक्षितः । ३. ऋग्वेद, ११०२७; ११०६।८२१२०७; ३१५४१५, ५।३०।११; ६. वही, पत्र ३५१ : कोष्ठा-धान्यपल्यास्तेषामगारं-तदाधारभूतं गृहम्, ६।१६।१४ ।
उपलक्षणत्वादन्यदपि प्रभूतधान्यस्थानं, यत्र प्रदीपनकादिभयात् धान्यकोष्ठाः ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० : जाव मज्झण्णो ताव उठेति, ताव से क्रियते तत् कोष्ठागारमुच्यते, यदि वा कोष्ठान् आ--समन्तात कुर्वते
तेयलेसा वद्धति, पच्छा परिहाति, अहवा उत्तिटतो सोमो भवति तस्मिन्निति कोष्ठाकारः।। हेमंतियबालसूरिओ।
१०. वही, पत्र ३५२ : सलिलं जलमस्यामरतीति, आर्शआदेराकृतिगणत्वादचि बृहद्वृत्ति, पत्र ३५१ : 'उत्तिष्ठन्' उद्गच्छन 'दिवाकरः' सूर्यः, स हि ऊ सलिला-नदी। व नभोभागमाक्रामन्नतितेजस्वितां भजते अवतरंस्तु न तथेत्येवं विशिष्यते, ११. वही, पत्र ३५२ : 'शीता' शीतानाम्नी, नीलवान-मेरोरुत्तरस्या दिशि यद्वा उत्थान-प्रथममुद्गमनं तत्र चायं न तीव्र इति तीव्रत्वाभावख्याप- वर्षधरपर्वतस्ततः.....प्रवहति...नीलवतप्रवहा वा।
कमेतत, अन्यदा हि तीव्रोऽयमिति न सम्यगू दृष्टान्तः स्यात्।। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० : सीता सव्वणदीण महल्ला बहूहि च ६. वही, पत्र ३५१: समाजः-समूहस्तं समवयन्ति सामाजिकाः-समूहवृत्तयो जलासतेहिं च आइण्णा।
'लोकारतेषां,........कोडागारे।
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