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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ११ : श्लोक १६-२२ टि० २४-३१ प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— गिरिवर मंदर पर्वत हाथी की पूर्ण बलवत्ता बतलाने के लिए साठ वर्ष का उल्लेख की तरह अचल ।'
किया गया है।
१६. अक्षयकोष — बहुश्रुत समुद्र की भांति अक्षय ज्ञान और अतिशयों से संपन्न होता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— अक्षुब्ध सागर की भांति शांत । २४ धर्म, कीर्ति और श्रुत (धम्मो कित्ती तहा सुयं) चूर्णिकार ने इस चरण का अर्थ दो प्रकार से किया हैयोग्य व्यक्ति को ज्ञान देने वाले बहुश्रुत के धर्म होता है, उसकी कीर्ति होती है और उसका ज्ञान अबाधित रहता है। दूसरे प्रकार से इसका अर्थ है - बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत अबाधित रहते हैं ।
२५. (कंबोयाणं, आइण्णे कंथए)
कंबो याणं - कम्बोज (प्राचीन जनपद, जो अब अफगानिस्तान का भाग है) में उत्पन्न अश्व 'कम्बोज कहलाते हैं। आइ-आकीर्ण अर्थात् शील, रूप, बल आदि गुणों से
युक्त अश्व
कंथए— खड़खड़ाहट या शस्त्र प्रहार से नहीं चौंकने वाला श्रेष्ठ जाति का घोड़ा 'कन्थक' कहलाता है।" २६. मंगलपाठकों के घोष से (नंदिषो से णं)
चूर्णि में इसका अर्थ है— मंगलपाठकों की जय-जय ध्वनि । वृत्तिकार ने इसको वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका मूल अर्थ बारह प्रकारों के वाद्यों की ध्वनि किया है। कोश में जय-जय की ध्वनि को नान्दी कहा गया है । यही अर्थ प्रसंगोपात्त है ।
२७. साठ वर्ष का (सडिहायणे)
साठ वर्ष की आयु तक हाथी का बल प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है और उसके बाद में कम होना शुरू हो जाता है। इसीलिए यहां
9.
प्रश्नव्याकरण, १० 199 अचले जह मंदरे गिरिवरे । २. वही, १०1११ अक्खोमे सागरोव्व थिमिए ।
३.
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : भायणे देतस्स धम्मो भवति कित्ती वा, सो तहा सुत्तं अबाधितं भवति, अपत्ते देतस्स असुतमेव भवति, अथवा इहलोगे परलोगे जसो भवति पत्तदाई (त्ति), अहवा एवंगुणजातीए भिक्खू बहुस्सुते भवति, धम्मो कित्ती जसो भवति, सुयं व से भवति ।
४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : कंबोतेसु भवा कंबोजाः, अश्वा इति
वाक्यशेषः ।
५.
(ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३४८ 'काम्बोजानां' कम्बोजदेशोद्भवानां प्रक्रमादश्वानाम् । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : आकीर्णे गुणेहिं सीलरूपबलादीहि य। ६ वृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ 'कन्थकः' प्रधानोऽश्यो, यः किल दृषच्छकलभृतकुतुपनिपतनध्वने र्न सन्त्रस्यति ।
७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ ।
८. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: नन्दीघोषेण-द्वादशतूर्यनिनादात्मकेन, यद् वा आशीर्वचनानि नान्दी जीयास्त्वमित्यादीनि ।
६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १६६ : हायणं वरिसं, सट्टिवरिसे परं
बलहीणो, अपत्तवलो परेण परिहाति ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: षष्टिहायनः षष्टिवर्षप्रमाणः, तस्य हि एतावत्कालं यावत् प्रतिवर्षं बलोपचयः ततस्तदपचय इत्येवमुक्तम् ।
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२८. अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला (जायखंधे)
'जाय' का अर्थ है-पुष्ट । जिसका कंधा पुष्ट होता है, उसे 'जात-स्कन्ध' कहा जाता है। जिसका कन्धा पुष्ट होता है उसके दूसरे अंगोपांग पुष्ट ही होते हैं।"
२९. ( श्लोक २० )
उदग्गे उदग्र के अनेक अर्थ हैं—प्रधान, शोभन, उत्कट, पूर्ण युवा आदि। यहां 'उदय' का अर्थ वयःप्राप्त पूर्ण युवा है।" मियाण - यहां 'मृग' का अर्थ जंगली पशु है ।” देखिएउत्तराध्ययन १।५ का टिप्पण ।
३०. शङ्ख, चक्र और गदा (संखचक्कगया)
वासुदेव के शङ्ख का नाम पाञ्चजन्य, चक्र का नाम सुदर्शन और गदा का नाम कौमोदकी है। २
लोहे के दण्ड को गदा कहा जाता है । अर्थशास्त्र के अनुसार यह चल-यंत्र होता है।"
३१. (चाउरते, चक्कवट्टी, चउदसरयण)
चाउरन्ते जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह 'चातुरन्त' कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ है-- हाथी, अश्व, रथ और मनुष्य- इन चारों के द्वारा शत्रु का अन्त करने वाला - नाश करने वाला।" चक्कवट्टी- छह खण्ड वाले भारतवर्ष का अधिपति 'चक्रवर्ती' कहलाता है।"
चउदसरयण- चक्रवर्ती के चौदह रत्न ये हैं
(१) सेनापति (२) गाथापति (३) पुरोहित (४) गज (५) अश्व (६) बढई (७) स्त्री (८) चक्र (६) छत्र (१०) चर्म (११) मणि (१२) काकिणी (१३) खड्ग और (१४) दण्ड 1
--
१२.
१३.
१०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: जातः — अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्धः प्रतीत एवास्येति जातस्कन्धः, समस्ताङ्गोपाङ्गोपचितत्वोपलक्षणं चैतत्, तदुपचये हि शेषाङ्गान्युपचितान्येवास्य भवन्ति ।
११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ उदग्गं पधानं शोभनमित्यर्थः, उदग्रं वयसि वर्त्तमानम् ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ 'उदग्र' उत्कट उदग्रवयः स्थितत्वेन वा उदग्रः ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: 'मृगाणाम्' आरण्यप्राणिनाम् । वही, पत्र ३५० -कौमोदकी ।
च---
१४. कौटिल्य अर्थशास्त्र,
२।१८३६, पृ० ११० ।
१५.
बृहद्वृत्ति, पत्र ३५० चतसृष्वपि दिश्वन्तः - पर्यन्त एकत्र हिमवानन्यत्र
शङ्खश्च पाञ्चजन्यः, चक्रं च - सुदर्शनं, गदा
च दित्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा -- हयगजरथनरात्मकैरन्तः - शत्रुविनाशात्मको यस्य स तथा ।
१६. वही, पत्र ३५० : 'चक्रवर्ती' षट्खण्डभरताधिपः ।
१७. वही, पत्र ३५० : चतुर्दश च तानि रत्नानि च चतुर्दशरत्नानि तानि चामूनि -
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सेणावइ गाहावइ पुरोहिय गय तुरंग वहुइग इत्थी । चक्कं छत्तं चम्मं मणि कागिणी खग्ग दंडो य ।।
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