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बहुश्रुतपूजा
१. नीच अर्थात् नम्र वर्तन करने वाला ।
२. शय्या आदि में गुरु से नीचा रहने वाला।' इसकी विशेष जानकारी के लिए देखें- -दशवैकालिक
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६।२।१७ ।
१३. जो चपल नहीं होता ( अचवले)
चपल चार प्रकार के होते हैं
१.
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गति - चपल -- जो दौड़ता हुआ चलता है। स्थान- चपल - जो बैठा-बैठा हाथ-पैर आदि को हिलाता रहता है, जो स्थिरता से एक आसन पर नहीं बैठता । भाषा - चपल - इसके चार प्रकार हैं--- (क) असत् प्रलापी—असत् (अविद्यमान) कहने वाला । (ख) असभ्य प्रलापी-कड़ा या रूखा बोलने वाला। (ग) असमीक्ष्य प्रलापी - बिना सोचे-विचारे बोलने वाला । (घ) अदेशकाल प्रलापी कार्य संपन्न हो जाने के बादउस-उस प्रदेश में यह कार्य किया जाता तो सुन्दर होता- इस प्रकार कहने वाला।
४.
भाव-चपल – प्रारम्भ किए हुए सूत्र और अर्थ को बीच में छोड़कर दूसरे सूत्र और अर्थ का अध्ययन प्रारम्भ करने वाला।
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१४. जो मायावी नहीं होता ( अमाई )
चूर्णिकार ने मायापूर्ण व्यवहार को समझाने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है—किसी साधु को भिक्षा में सरस भोजन मिला। उसने सोचा — गुरु इस भोजन को देखेंगे तो स्वयं ले लेंगे। इस डर से उसने सरस भोजन को रूखे-सूखे भोजन से ढक दिया - यह मायापूर्ण व्यवहार है। जो ऐसे व्यवहारों का आसेवन नहीं करता, वह अमायी होता है। विशेष विवरण के लिए देखें- दशवैकालिक ५।२।३१ ।
१५. जो कुतूहल नहीं करता (अकुऊहले)
इन्द्रियों के विषय और चामत्कारिक विद्याएं पाप-स्थान होती हैं, यह जान कर जो उनके प्रति उदासीन रहता है, उसे अकुतूहल कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति नाटक, इन्द्रजाल आदि
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१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ : नीचम् - अनुद्धतं यथा भवत्येवं नीचेषु वा शय्यादिषु वर्तते इत्येवंशीलो नीचवर्ती - गुरुषु न्यग्वृत्तिमान्।
२. वही, पत्र ३४६-३४७ 'अचपलः' नाऽऽरब्धकार्यं प्रत्यस्थिरः, अथवाऽचपलो- गतिस्थान भाषाभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र गतिचपलः द्रुतचारी, स्थानचपलः तिष्ठन्नपि चलन्नेवास्ते हस्तादिभिः, भाषाचपलः-असदसभ्यासमीक्ष्यादेशकालप्रलापिभेदाच्चतुर्द्धा तत्र असद्— अविद्यमानमसभ्यं खरपरुषादि, असमीक्ष्य-अनालोच्य प्रलपन्तीत्येवंशीला असदसभ्यासमीक्ष्यप्रलापिनस्त्रयः, अदेशकालप्रलापी चतुर्थः अतीते कार्ये यो वक्तियदिदं तत्र देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यद् भावचपलः सूत्रे ऽर्थे वाऽसमाप्त एव योऽन्यद् गृह्णाति ।
३. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६७ : 'अमाई' त्ति जो मायं न सेवति, साय माया एरिसप्पगारा, जहा कोइ मणुन्नं भोयनं लद्दूण पंतेण छातेति 'मा मेयं दाइयं संतं दद्दूणं सयमादिए।'
४. वही, पृ० १६७ : अकुतूहली विसएस विज्जासु पावठाणत्ति ण वट्टतित्ति ।
को देखने के लिए कभी उत्सुक नहीं होता।*
१६. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता (अणं चाऽहिक्खिवई)
'अल्प' शब्द के दो अर्थ होते हैं—थोड़ा और अभाव । पहले अर्थ के अनुसार इस चरण का अनुवाद होगाथोड़ा तिरस्कार करता है। इसका भाव यह है कि ऐसे तो वह किसी का तिरस्कार नहीं करता किन्तु अयोग्य को धर्म में प्रेरित करने की दृष्टि से उसका थोड़ा तिरस्कार करता है । "
चूर्णि के अनुसार यहां 'अल्प' शब्द अभाववाची है।" १७. जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता (न व पावपरिक्खेबी)
अध्ययन ११ : श्लोक ११-१३ टि० १३-१६
प्रस्तुत श्लोक में 'पाप' शब्द का प्रयोग पापी अथवा दोषपूर्ण व्यक्ति के अर्थ में किया गया है। अविनीत व्यक्ति दोषी का तिरस्कार करता है। विनीत व्यक्ति दोष का तिरस्कार करता है, दोषी का नहीं। यह दोनों के दृष्टिकोण में बहुत बड़ा अन्तर है ।
गोशालक ने आर्द्रकुमार से कहा- 'तुम यह कहकर सभी प्रावादुकों की गर्हा कर रहे हो। वे प्रावादुक अपने-अपने दर्शन का निरूपण करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि को प्रकट करते हैं।'
तब आर्द्रकुमार ने कहा- ' गरहामो दिहिं ण गरहामो किंचि' हम दृष्टि (दर्शन) की गर्ता कर रहे हैं, किसी प्राचादुक की गह नहीं कर रहे हैं।
१८. प्रशंसा करता है (कल्लाण मासई) :
कुछ व्यक्ति कृतघ्न होते हैं। वे एक दोष को सामने रख कर सौ गुणों को भुला देते हैं। कुछ व्यक्ति कृतज्ञ होते हैं। वे एक गुण को सामने रख कर सौ दोषों को भुला देते हैं। यहां बतलाया गया है कि कृतज्ञ व्यक्ति अपकार करने वाले मित्र के पूर्वकृत किसी एक उपकार का स्मरण कर उसके परोक्ष में भी उसका दोष -गान नहीं करता किन्तु गुणगान करता है, प्रशंसा करता है । "
१९. ( कलहडमर, बुद्धे अभिजाइए, हिरिमं पडिसंलीणे)
कलहडमर - 'कलह' का अर्थ है-वाचिक विग्रह अर्थात्
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बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ 'अकुतूहल: ' न कुहुकेन्द्रजालाद्यवलोकनपरः । वही, पत्र ३४७ 'अल्पं च' इति स्तोकमेव 'अधिक्षिपति' तिरस्कुरुते, किमुक्तं भवति ? - नाधिक्षिपत्येव तावदसौ कंचन, अधिक्षिपन् वा कंचन ककटुकरूपं धर्म प्रति प्रेरयन्नल्पमेवाधिक्षिपति ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ अल्पशब्दो हि स्तोके अभावे वा अत्र अभावे द्रष्टव्यः, ण किंचि अधिक्खिदति, नाभिक्रमतीत्यर्थः ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ ।
सूयगडो, २६ ११, १२ ।
१०. बृहद्वृत्ति पत्र ३४७ कल्याणं भाषते, इदमुक्तं भवति - मित्रमिति यः प्रतिपन्नः स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते तथाऽप्येकमपि सुकृतमनुस्मरन् न रहस्यपि तद्दोषमुदीरयति तथा चाहएकसुकृतेन दुष्कृतशतानि ये नाशयन्ति ते धन्याः । न त्वेकदोषजनितो येषां कोपः स च कृतघ्नः ।।
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