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टिप्पण
१. आचार (आयारं)
आचार का अर्थ 'उचित क्रिया' या 'विनय' है ।' चूर्णिकार के अनुसार पूजा, विनय और आचार एकार्थक शब्द हैं। जैन और बौद्ध साहित्य में विनय शब्द भी आचार के अर्थ में बहुलता से प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत की पूजा और शिक्षा की अर्हता पर प्रकाश डाला गया है।*
आचार के पांच प्रकार हैं—ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपः आचार और वीर्याचार। बहुश्रुतता का संबंध ज्ञानाचार या शिक्षा से है ।
२. (अवि, पडे, अणिग्महे)
अध्ययन ११ : बहुश्रुतपूजा
प्रस्तुत प्रकरण बहुश्रुत की पूजा का है। बहुश्रुत की पूजा उसके स्वरूप को जानने से होती है। बहुश्रुत का प्रतिपक्ष
बहुश्रुत है। बहुश्रुत को जानने से पहले अबहुश्रुत को जानना आवश्यक है। इसलिए इस श्लोक में अबहुश्रुत का स्वरूप बतलाया गया है।
'अवि' का अर्थ है— विद्यावान् होते हुए भी। निर्विद्य ( विद्याहीन) शब्द मूल पाठ में प्रयुक्त है किन्तु विद्यावान् का उल्लेख 'अपि' शब्द के आधार पर किया गया है। जो स्तब्धता आदि दोषों से युक्त है वह विद्यावान होते हुए भी अबहुश्रुत है। इसका कारण यह है कि स्तब्धता आदि दोषों से बहुश्रुतता का . फल नहीं होता।
'थ' का अर्थ है-अभिमानी। ज्ञान से अहंकार का नाश होता है किन्तु जब ज्ञानं भी अहंकार की वृद्धि का साधन बन जाए तब अहंकार कैसे मिटे ? जब औषध भी विष का काम
9.
२.
३.
४. बृहद्वृत्ति पत्र ३४४ स चेह बहुश्रुतपूजात्मक एव गृह्यते, तस्या
एवात्राधिकृतत्वात् ।
वृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ : आचरणमाचारः उचितक्रिया विनय इति यावत् । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८५ पूयत्ति वा विणओत्ति वा आयारोत्ति वा एगट्टं । देखें- १1१ का टिप्पण ।
५. ठाणं ५।१४७ ।
६. बृहद्वृत्ति पत्र ३४४
€.
इह च बहुश्रुतपूजा प्रक्रान्ता सा च बहुश्रुतस्वरूपपरिज्ञान एव कर्त्तुं शक्या, बहुश्रुतस्वरूपं च तद्विपर्ययपरिज्ञा
तद्विविक्तं सुखेनैव ज्ञायत इत्यबहुश्रुतस्वरूपमाह ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ अपिशब्दसम्बन्धात् सविद्योऽपि । ८. वहीं, पत्र ३४४
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सविद्यस्याप्यबहुश्रुतत्वं बाहुश्रुत्यफलाभावादिति
भावनीयम् । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ :
ज्ञानं मदनिर्मथनं माद्यति यस्तेन दुश्चिकित्स्यः सः । अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कुतोऽन्येन ।।
करे तो चिकित्सा किसके द्वारा की जाए ?
'अणिग्गहे' का अर्थ है- अजितेन्द्रिय । इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए विद्या अंकुश के समान है। उसके अभाव में व्यक्ति अनिग्रह होता है। जो इन्द्रियों का निग्रह न कर सके वह अनिग्रह– अजितेन्द्रिय कहलाता है।"
३.
(श्लोक ३)
प्रस्तुत श्लोक के कुछेक शब्दों का विवरणठाणेहिं स्थानों से स्थान शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका अर्थ हेतु " या प्रकार" है ।
सिक्खा शिक्षा । शिक्षा के दो प्रकार हैं-ग्रहण और आसेवन । ज्ञान प्राप्त करने को ग्रहण और उसके अनुसार आचरण करने को आसेवन कहा जाता है।" अभिमान आदि कारणों से ग्रहण - शिक्षा भी प्राप्त नहीं होती तो भला आसेवन-शिक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है ?१५
थंभा - इसका अर्थ है – 'मान' । अभिमानी व्यक्ति विनय नहीं करता, इसलिए उसे कोई नहीं पढ़ाता। अतः मान शिक्षा प्राप्ति में बाधक है।"
पमाएणं प्रमाद के पांच प्रकार हैं
(१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा ! ७
रोगेण पूर्णिकार ने रोग उत्पन्न होने के दो कारण बतलाए हैं
१०.
११.
(१) अति-आहार और (२) अपथ्य आहार । आलस्सएण आलस्य का अर्थ है—उत्साहहीनता ।
वही, पृ० १६५ : अंकुशभूता विद्या तस्या अभावादनिग्रहः । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ न विद्यते इन्द्रियनिग्रहः इन्द्रियनियमनात्मको ऽस्येति अनिग्रहः ।
१२. वही, पत्र ३४४ - ३४५ : 'यैः' इति वक्ष्यमाणैर्हेतुभिः ।
१३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : ठाणेहिंति प्रकारा ।
१४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ : शिक्षणं शिक्षा ग्रहणासेवनात्मिका ।
१५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : गहणसिक्खावि णत्थि, कतो आसेवणसिक्खा ।
१६. वही, पृ० १६५ तत्थ ते णो कोइ पाढेति इयरो थद्धत्तेण ण वंदति । १७. वही, पृ० १६५ : पमादो पंचविधो, तंजहा- मज्जप० विसयप० कसायप० णिद्दाप० विगहापमादो।
१८. वही, पृ० १६५: अत्याहारेण अपत्थाहारेण वा रोगो भवति । १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ 'आलस्येन' अनुत्साहात्मना ।
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