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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ११ : श्लोक २७-३२
२७.जहा सा दमाण पवरा यथा सा दुमाणां प्रवरा - जिस प्रकार अनादृत देव का आश्रय सुदर्शना नाम जंबू नाम सुदंसणा। जम्बूर्नाम्ना सुदर्शना।
का जम्बू वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार अणाढियस्स देवस्स अनादृतस्य देवस्य
बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है।३७ एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। २८.जहा सा नईण पवरा यथा सा नदीनां प्रवरा जिस प्रकार नीलवान् पर्वत से निकल कर समुद्र में सलिला सागरंगमा।
सलिला सागरगमा।
मिलने वाली शीता नदी शेष नदियों में श्रेष्ठ है, उसी सीया नीलवंतपवहा शीता नीलवत्प्रवहा
प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। २६.जहा से नगाण पवरे यथा स नगानां प्रवरः
जिस प्रकार अतिशय महान् और अनेक प्रकार सुमहं मंदरे गिरी। सुमहान्मन्दरो गिरिः।
की औषधियों से दीप्त मंदर पर्वत सब पर्वतों में नाणासहिपज्जलिए नानौषधिप्रज्वलितः
श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।।
होता है। ३०.जहा से सयंभूरमणे यथा स स्वयम्भूरमणः जिस प्रकार अक्षय जल वाला स्वयंभूरमण समुद्र उदही अक्खओदए। उदधिरक्षयोदकः।
अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ होता है, उसी नाणारयणपडिपुण्णे नानारत्नप्रतिपूर्णः
प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। ३१.समुद्दगंभीरसमा दुरासया समुद्रगाम्भीर्यसमा दुराशयाः समुद्र के समान गम्भीर", दुराशय-जिसके आशय
अचक्किया केणई दुप्पहंसया। अशक्याः केनापि दुष्प्रधर्षकाः। तक पहुंचना सरल न हो, अशक्य-जिसके ज्ञानसिन्धु सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो श्रुतेन पूर्णा विपुलेन तादृशः को लांघना शक्य न हो, किसी प्रतिवादी के द्वारा खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया। क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमां गताः।। अपराजेय और विपुलश्रुत से पूर्ण१२ वैसे बहुश्रुत मुनि
कर्मों का क्षय करके उत्तम गति (मोक्ष) में गए। ३२.तम्हा सुयमहिढेज्जा तस्मात् श्रुतमधितिष्ठेत् इसलिए उत्तम अर्थ-३ (मोक्ष) की गवेषणा करने उत्तमट्ठगवेसए। उत्तमार्थगवेषकः।
वाला मुनि श्रुत का आश्रयण करे,*५ जिससे वह जेणऽप्पाणं परं चेव येनात्मानं परं चैव
अपने आपको और दूसरों को सिद्धि की प्राप्ति करा सिद्धिं संपाउणेज्जासि ।। सिद्धिं संप्रापयेत्।।
सके।
–त्ति बेमि।
-इति ब्रवीमि।
—ऐसा मैं कहता हूं।
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