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अध्ययन ११ : श्लोक १८-२६
जिस प्रकार हथिनियों से परिवृत साठ वर्ष का२७ बलवान् हाथी किसी से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार बहुश्रुत दूसरों से पराजित नहीं होता।
जिस प्रकार तीक्ष्ण सींग और अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला बैल यूथ का अधिपति बन सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत आचार्य बनकर सुशोभित होता
जिस प्रकार तीक्ष्ण दाढ़ों वाला पूर्ण युवा और दुष्पराजेय सिंह आरण्य-पशुओं में श्रेष्ट होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अन्य तीर्थकों में श्रेष्ठ होता है।
जिस प्रकार शङ्ख, चक्र और गदा" को धारण करने वाला वासुदेव अबाधित बल वाला योद्धा होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अबाधित बल वाला होता है।
बहुश्रुतपूजा १८.जहा करेणुपरिकिण्णे
कुंजरे सट्ठिहायणे। बलवंते अप्पडिहए
एवं हवइ बहुस्सुए।। १६.जहा से तिक्खसिंगे
जायखंधे विरायई। वसहे जूहाहिवई
एवं हवइ बहुस्सुए।। २०.जहा से तिक्खदाढे
उदग्गे दुप्पहंसए। सीहे मियाण पवरे
एवं हवइ बहुस्सुए।। २१.जहा से वासुदेवे
संखचक्कगयाधरे। अप्पडिहयबले जोहे
एवं हवइ बहुस्सुए।। २२.जहा से चाउरते
चक्कवट्टी महिड्ढिए। चउदसरयणाहिवई
एवं हवइ बहुस्सुए।। २३.जहा से सहस्सक्खे
वज्जपाणी पुरंदरे। सक्के देवाहिवई
एवं हवइ बहुस्सुए।। २४.जहा से तिमिरविद्धंसे
उत्तिटुंते दिवायरे। जलते इव तेएण
एवं हवइ बहुस्सुए।। २५.जहा से उडुवई चंदे
नक्खात्तपरिवारिए। पडिपुण्णे पुण्णमासीए
एवं हवइ बहुस्सुए।। २६.जहा से सामाइयाणं
कोट्ठागारे सुरक्खिए। नाणाधन्नपडिपुण्णे एवं हवइ बहुस्सुए।।
यथा करेणुपरिकीर्णः कुञ्जरः षष्टिहायनः। बलवानप्रतिहतः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स तीक्ष्णशृंगः जातस्कन्धो विराजते। वृषभो यूथाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः ।। यथा स तीक्ष्णदंष्ट्रः उदग्रो दुष्प्रधर्षकः। सिंहो मृगाणां प्रवरः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स वासुदेवः शङ्खचक्रगदाधरः। अप्रतिहतबलो योधः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स चतुरंतः चक्रवर्ती महर्द्धिकः। चतुर्दशरत्नाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स सहस्मक्षः वज्रपाणिः पुरन्दरः। शक्रो देवाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स तिमिरविध्वंशः उत्तिष्ठन् दिवाकरः। ज्चलन्निव तेजसा एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स उडुपतिश्चन्द्रः नक्षत्रपरिवारितः। प्रतिपूर्णः पौर्णमास्यां एवं भवति बहुश्रुतः ।। यथा स सामाजिकानां कोष्ठागारः सुराक्षितः। नानाधान्यप्रतिपूर्णः एवं भवति बहुश्रुतः ।।
जिस प्रकार महान् ऋद्धिशाली, चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत चतुर्दश पूर्वथर होता है।"
जिस प्रकार सहनचक्षु,३२ वज्रपाणि और पुरों का विदारण करने वाला शक्र देवों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत दैवी सम्पदा का अधिपति होता
जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने वाला उगता हुआ" सूर्य तेज से जलता हुआ प्रतीत होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत तप के तेज से जलता हुआ प्रतीत होता
जिस प्रकार नक्षत्र५ परिवार से परिवृत ग्रहपति चन्द्रमा पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण होता है, उसी प्रकार साधुओं के परिवार से परिवृत बहुश्रुत सकल कलाओं में परिपूर्ण होता है। जिस प्रकार सामाजिकों (समुदायवृत्ति वालों) का कोष्ठागार ६ सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत नाना प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है।
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