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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन ११ : श्लोक ६-१७
६. पइण्णवाई दुहिले
थद्धे लुद्ध अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई।।
१९६ प्रकीर्णवादी द्रोही स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः। असंविभागी 'अचियत्त' अविनीत इत्युच्यते।।
अथ पंचदशभिः स्थानः सुविनीत इत्युच्यते। नीचवर्त्यचपलः अमाय्यकुतूहलः।।
१०.अह पन्नरसहिं ठाणेहिं
सुविणीए त्ति वुच्चई। नीयावत्ती अचवले
अमाई अकुऊहले।। ११.अप्पं चाऽहिक्खिवई
पबन्धं च न कुव्वई। मेत्तिज्जमाणो भयई
सुयं लद्धं न मज्जई।। १२.न य पावपरिक्खेवी
न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स
रहे कल्लाण भासई ।। १३.कलहडमरवज्जए
बुद्धे अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई।।
(८) जो असंबद्ध-भाषी है,° (E) जो द्रोही है, (१०) जो अभिमानी है, (११) जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, (१२) जो अजितेन्द्रिय है, (१३) जो असंविभागी है और (१४) जो अप्रीतिकर है"—वह अविनीत कहलाता है। पन्द्रह स्थानों (हेतुओं) से सुविनीत कहलाता है—(१) जो नम्र व्यवहार करता है,१२ (२) जो चपल नहीं होता,२ (३) जो मायावी नहीं होता," (४) जो कुतूहल नहीं करता,५ (५) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (६) जो क्रोध को टिका कर नहीं रखता, (७) जो मित्रभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, (८) जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता, (E) जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता,७ (१०) जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, (११) जो अप्रिय मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता
अल्पं चाधिक्षिपति प्रबन्धं च न करोति। मित्रीय्यमाणो भजति श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति।। न च पाप-परिक्षेपी न च मित्रेभ्यः कुप्यति। अप्रियस्यापि मित्रस्य रहसि कल्याणं भाषते।।
कलह-'डमर'-वर्जकः बुद्धोऽभिजातिगः। हीमान् प्रतिसंलीनः सुविनीत इत्युच्यते।।
१४.वसे गुरुकुले निच्चं
वसेद् गुरुकुले नित्यं जोगवं उवहाणवं।
योगवानुपधानवान्। पियंकरे पियंवाई
प्रियकरः प्रियवादी से सिक्खं लडुमरिहई।।
स शिक्षा लब्धुमर्हति।। १५.जहा संखम्मि पयं
यथा शखे पयो निहियं दुहओ वि विरायइ। निहितं द्विधापि विराजते। एवं बहुस्सुए भिक्खू एवं बहुश्रुते भिक्षौ धम्मो कित्ती तहा सुयं ।। धर्मः कीर्तिस्तथा श्रुतम् ।।
(१२) जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है (१३) जो कुलीन होता है (१४) जो लज्जावान् होता है
और (१५) जो प्रतिसंलीन (इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला) होता है-वह बुद्धिमान् मुनि सुविनीत कहलाता है। जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो एकाग्र होता है," जो उपधान (श्रुत-अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय व्यवहार करता है, जो प्रिय बोलता हैवह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार शङ्ख में रखा हुआ दूध दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होता है उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति
और श्रुत" दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होते हैं। जिस प्रकार कम्बोज के घोड़ों में से कन्थक घोड़ा शील आदि गुणों से आकीर्ण और वेग से श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं में बहुश्रुत श्रेष्ट होता है।"
१६.जहा से कंबोयाणं
आइण्णे कंथए सिया। आसे जवेण पवरे
एवं हवइ बहुस्सुए।। १७.जहाइण्णसमारूढे
सूरे दढपरक्कमे। उभओ नंदिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए।।
यथा स काम्बोजानां आकीर्णः कन्थकः स्यात् । अश्वो जवेन प्रवरः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथाऽऽकीर्णसमारूढः शूरो दृढपराक्रमः। उभयतो नन्दिघोषेण एवं भवति बहुश्रुतः।।
जिस प्रकार आकीर्ण (जातिमान) अश्व पर चढ़ा हुआ दृढ़ पराक्रम वाला योद्धा दोनों ओर होने वाले मंगलपाठकों के घोष से२५ अजेय होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अपने आसपास होने वाले स्वाध्याय-धोष से अजेय होता।
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