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कापिलीय
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अध्ययन ८ :श्लोक ४-५टि० ७-६ किया है।' मोनियर विलियम्स ने इसके मुख्यतः तीन अर्थ किए “भन्ते ! आमिष (भोजन आदि) के (विषय में) कैसे करना हैं-झगड़ा, झूठ या धोखा, गाली-गलौज।
चाहिए ?" __ कलह क्रोधपूर्वक होता है। अतः कारण में कार्य का “सारिपुत्र ! आमिष सबको समान बांटना चाहिए।" उपचार कर 'कलह' को क्रोध कहा गया है।
"भिक्षुओ! ये दो दान हैं-आमिष-दान और धर्म-दान। ७. वीतरागतुल्य मुनि (ताई)
इन दो दानों में जो धर्म-दान है, वह श्रेष्ठ है।" इस प्रकार व्याख्याकारों ने इसके संस्कृत रूप दो दिए हैं तायी और आमिष-संविभाग (अनुग्रह) और आमिष-योग (पूजा) के प्रयोग त्रायी। जार्ल सरपेन्टियर टीकाकारों द्वारा किए गए इस अर्थ को मिलते हैं। भोग-सन्निधि के अर्थ में आमिष-सन्निधि का प्रयोग ठीक नहीं मानते। उनका अभिमत है कि ताई को तादि-तादक किया गया है।" अभिधानप्पदीपिका के श्लोक २८० में आमिष के समान मानना चाहिए। तब इसका अर्थ होगा—उस जैसा को मांस का तथा श्लोक ११०४ में उसे अन्नाहार का पर्यायवाची वैसा। वे कहते हैं कि कालान्तर में इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष माना है। हुआ और इसका अर्थ-उस जैसा अर्थात् बुद्ध जैसा यह भोग अत्यन्त आसक्ति के हेतु हैं, इसलिए यहां उन्हें हुआ। तदनन्तर इसका अर्थ-पवित्र संत व्यक्ति आदि हुआ। आमिष कहा गया है।२ इस आशय का आधार प्रस्तुत करते हुए वे चाइल्डर्स S.V. और चूर्णिकार के अनुसार जो वस्तु सामान्य रूप से बहुत दीघनिकाय पृ० ८८ पर फ्रेंक का नोट देखने का अनुरोध करते लोगों द्वारा अभिलषणीय होती है, उसे आमिष कहा जाता है। ह। सरपन्टियर का यह अभिमत संगत लगता है। हमने इसी भोग बहुत लोगों के द्वारा काम्य हैं. इसलिए उन्हें आमिष कहा आधार पर इसका संस्कृत रूप तादृक् दिया है। विशुद्धिमार्ग पृ० है। भोगामिष अर्थात् आसक्ति-जनक भोग अथवा बहुजन १८० में तादिन शब्द का प्रयोग एक जैसे रहने वाले के अर्थ में अभिलषणीय भोग।३ देखिए १४।४१ का टिप्पण। हुआ है
शान्त्याचार्य ने इस भावना के समर्थन में दशवकालिक की यस्मा नत्थि रहो नाम, पापकम्मेसु तादिनो। प्रथम चूलिका के दो श्लोक उद्धृत किए हैंरहाभावेन तेनेस, अरहं इति विस्सुनो।
१. जया य कुकुडंबस्स......। ८. भोगामिष-आसक्ति-जनक भोग में (भोगामिस)
२. पुत्तदारपरिकिण्णो........ । (चूलिका १७,८) वर्तमान में आमिष का सीधा अर्थ मांस किया जाता है। ९. विपरात (वाच्चत्य) प्राचीन काल में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में होता था। इसी
चूर्णि में 'वोच्चत्थ' का अर्थ विपरीत और बृहद्वृत्ति में आगम के चौदहवें अध्ययन में इसका छह बार प्रयोग हुआ है। विपययवान् या व
विपर्ययवान् या विपर्यस्त किया गया है। बुद्धि का विशेषण माना अनेकार्थ कोष में आमिष के—फल, सुन्दर आकृति, रूप,
है वहां विपरीत या विपर्यस्त और बाल का विशेषण माना है वहां सम्भोग, लोभ और लंचा-इतने अर्थ मिलते हैं। उत्तराध्ययन
विपर्ययवान् किया गया है। इसका संस्कृत रूप व्यत्यस्त होना १४।४६ में यह मांस के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पंचासक
चाहिए। डॉ० पिसेल ने इसका मूल उच्चस्थ माना है।" प्रकरण में यह आहार या फल आदि के अर्थ में प्रयक्त हआ देशीनाममाला में इसका अर्थ 'विपरीत मैथुन-क्रिया' किया गया है। आसक्ति के हेतुभूत जो पदार्थ होते हैं उन सबके अर्थ में है।'६ सम्भव है उस समय यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त रहा इसका प्रयोग किया जाता था। बौद्ध साहित्य में भोजन व हो और बाद में इस अर्थ के एकांश को लेकर इसका अर्थ विषय-भोग-इन अर्थों में भी 'आमिष' शब्द प्रयुक्त हुआ है। “विपरीत' रूढ़ बन गया हो। इसका मूल उच्चस्थ की अपेक्षा
१. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, p.33. २. Sanskrit English Dictionary, p. 261... ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : तायते-त्रायते वा रक्षति दुर्गतरात्मानम्
एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी-त्रायी वा। ४. उत्तराध्ययन, पृ० ३०७,३०८।
उत्तराध्ययन १४।४१, ४६, ४६। ६. अनेकार्थ कोष, पृ० १३३० : आमिषं-फले सुन्दराकाररूपादौ सम्भोगे
लोभलंचयोः। ७. बृहवृत्ति, पत्र ४१० : सहामिषेण—पिशितरूपेण वर्तत इति सामिषः। ८. पंचासक प्रकरण ६३१॥ ६. बुद्धचर्या, पृ० १०२। १०. इतिवृत्तक, पृ० ८६। ११. बुद्धचर्या, पृ० ४३२। १२. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादयः ते च ते आमिषं
चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगामिषम् । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ : भुज्यंत इति भोगाः, यत् सामान्य बहुभिः
प्रार्थ्यते तद् आमिषं, भोगा एव आमिष भोगामिषम्। १४ (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ : वुच्चित्थोत्ति जस्स हिते निःश्रेयसे
अहितानिःश्रेयससंज्ञा, विपरीतबुद्धिरित्यर्थः।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : तत्र तयोर्वा 'बुद्धिः' तत्प्राप्युपायविषया
मतिः तस्यां विपर्य यवान् सा वा विपर्यस्ता यस्य स हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः विपर्यस्तहिनिःश्रेयसबुद्धिर्वा, विपर्यस्तशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत् यद्वा विपर्यस्ता हिते निःशेषा
बुद्धिर्यस्य स तथा। १५. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ०४७६ : वोच्चत्थ (विपरीत रतिः
देशी०७,५८)-उच्चस्थ जो उच्च से सम्बन्धित है। १६. देशीनाममाला, ७॥५६॥
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