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उत्तरज्झयणाणि
१७८ अध्ययन ६ :श्लोक ५३-६१टि०४५-५० खेत में उत्पन्न मोठ-बाजरे की फसल को उखाड़ दिया था। पानी सम्मोह, सम्मोह से स्मृति-विभ्रम और स्मृति-विभ्रम से बुद्धि का के अभाव में इक्षु हुआ नहीं। वह दोनों से हाथ धो बैठा। वैसे नाश हो जाता है। बुद्धि नष्ट होने पर वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है।' ही आप भी मुक्ति-सुख के लोभ में इस ऐहिक सुख को छोड़ रहे हैं। ४७. (श्लोक ५४)
मरुप्रदेश में 'सुवरी' नामक एक गांव था। वहां बग नाम प्रस्तत श्लोक में क्रोध, मान, माया और लोभ के परिणामों का किसान रहता था। एक बार वह अपने खेत में मोठ, बाजरी का प्रतिपादन है। जो व्यक्ति कामनाओं के वशीभूत होता है, बोकर ससुराल गया। वहां ईख बहुत होते थे। ससुराल वालों ने प्राप्त भोगों में आसक्त होता है और अप्राप्त भोगों को सतत दामाद के स्वागत में ईक्षुरस के मालपूए बनाए। उसे बहुत वांछा करता है, उसमें ये चारों कषाय अवश्य होते हैं। भोगों की स्वादिष्ट लगे। भोजन के पश्चात् उसने अपने ससुर से ईक्षु बोने वांछा के साथ इनका होना अनिवार्य है। ये चारों अधोगति के हेत हैं। की विधि पूछी। उन्होंने ईक्षु बोने से लेकर मालपूए बनाने तक यहां क्रोध से नरकगति, मान से अधम गति, माया से की सारी प्रक्रिया बता दी। ससुराल से आते समय वह बोने के सुगति का विनाश अर्थात दुर्गति की प्राप्ति और लोभ से ऐहिक लिए ईक्षखंड भी ले आया। वह अपने गांव पहुंचा। मोठ-बाजरे तथा पारलौकिक दुःख की प्राप्ति का उल्लेख है। अनुसंधान के की फसल अच्छी थी। उसने मोठ-बाजरे को उखाड़ फेंका। खेत लिए देखें-२६।४। साफ कर उसमें ईक्षु बो दिया। मरुप्रदेश में पानी है कहां ! बिना स्थानांग (४।६२६) में माया को तिर्यञ्चयोनि का कारण पानी के ईक्षु की खेती होती नहीं। ईक्षु बोने का प्रयत्न व्यर्थ गया। माना है। उस खेत से उसे न मोठ-बाजरे की फसल ही प्राप्त हुई और आयर्वेद में हृदय-दौर्बल्य, अरुचि, अग्निमांद्य आदि का न ईक्ष ही मिले। वह दोनों को खो बैठा । वह न इधर का रहा मल कारण लोभ माना है। यह व्यवहार संगत भी है। क्योंकि न उधर का—'नो हव्वाए नो पाराए।'
लोभी व्यक्ति सदा भयभीत रहता है, सत्य कहने या स्वीकारने में ४५. कामभोग की इच्छा करने वाले (कामे पत्थेमाणा) उसका हृदय निर्बल हो जाता है। निरंतर अर्थार्जन की बात
नमि राजर्षि ने कहा-इन्द्र ! कामभोग की इच्छा करने सोचते रहने से उसमें अरुचि और अग्निमांद्य का होना वाले उनका सेवन न करने पर भी दुर्गति में जाते हैं तो भला, स्वाभाविक है। असद् भोगों की वांछा की, जो तुमने मेरे प्रति संभावना की है, ४८. मुकुट को धारण करने वाला (तिरीडी) वह सर्वथा असंगत है, क्योंकि मुमुक्षु व्यक्ति कहीं भी आकांक्षा जिसके तीन शिखर हों उसे 'मुकुट' और जिसके चौरासी नहीं करता। कहा भी है—'मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो शिखर हों उसे 'किरीट' कहा जाता है। जिसके सिर पर किरीट मुनिसत्तमः'-मुनि मोक्ष और संसार के प्रति सर्वथा निस्पृह हो वह 'किरीटी' कहलाता है। सामान्यतया मुकुट और किरीट होता है, इसलिए इंद्र ! तुम्हारा कथन सार्थक नहीं है।
पर्यायवाची माने जाते हैं। ४६. (श्लोक ५३)
४९. (नमी नमेइ अप्पाण) प्रस्तुत श्लोक में काम को शल्य, विष और आशीविष सर्प वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'...के तुल्य कहा गया है। काम की चुभन निरंतर बनी रहती है, १. राजर्षि नमि ने अपने उत्प्रेरित आत्मा को स्वतत्त्वभावना इसलिए वह शल्य (अन्तर्वण) है। उसमें मारक-शक्ति है, से प्रगुणित किया, किन्तु इन्द्र की स्तुति सुनकर गर्वित नहीं हुए। इसलिए वह विष है। आशीविष सर्प वे होते हैं जिनकी दाढाओं २. इन्द्र की स्तुति सुनकर नमि ने अपने आपको संयम में विष होता है। वे मणिधारी सर्प होते हैं। उनकी दीप्तमणि से के प्रति और अधिक संलग्न कर दिया। विभूषित फण लोगों को सुंदर लगते हैं। लोग उन फणों का स्पर्श आचार्य नेमिचन्द्र ने यहां एक श्लोक प्रस्तुत किया है - करने की इच्छा का संवरण नहीं कर पाते। ज्योंही वे उन सो संतगुणकित्तणेण वि, पुरिसा लज्जति जे महासत्ता। का स्पर्श करते हैं, तत्काल उनके द्वारा डसे जाने पर मृत्यु को इयरे पुण अलियपसंसणे वि अंगे न मायति॥' प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार काम भी लुभावने होते हैं और ५०. वैदेही (मिथिला) (वइदेही) प्राणी इनका सहज शिकार हो जाता है।'
नमि विदेह जनपद के अधिपति थे, इसलिए उन्हें 'विदेही' गीता में कहा है-जो व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों का निरन्तर कहा है। 'वइदेही' का दूसरा संस्कृत रूप 'वैदेही' है। विभक्ति का चिंतन करता रहता है, उसके मन में आसक्ति पैदा होती है। व्यत्यय माना जाए तो इसका अर्थ 'वैदेहीं' (मिथिला को) किया आसक्ति से काम-वासना उभरती है। उससे क्रोध, क्रोध से जा सकता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१८ ।।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६-३२०। २. गीता २१६२, ६३।
६. सुखबोधा, पत्र १५३।। ३. सूत्रकृताङ्ग चूर्णि, पृ० ३६० : तिहिं सिहरएहिं मउडो चतुरसीहिं . ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३२० : 'वइदेहीत्ति सूत्रत्वाद्विदेहो नाम जनपदः सोऽस्यास्तीति तिरीडं।
विदेही विदेहजनपदाधिपो, न त्वन्य एव कश्चिदिति भावः, यद्वा विदेहेषु ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : किरीटी च-मुकुटवान्।
भवा वैदेही—मिथिलापुरी, सुब्ब्यत्ययात्ताम् ।
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