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नमि- प्रव्रज्या
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अध्ययन ६ : श्लोक ४४-५१ टि० ३६-४४ ३९. कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार (कुसग्गेण तु चूर्णिकार ने हिरण्य का अर्थ 'चाँदी' और सुवर्ण का अर्थ 'सोना' मुंजए) किया है। शान्त्याचार्य ने हिरण्य का अर्थ 'सोना' किया है। उनके अनुसार सुवर्ण हिरण्य का विशेषण है। सुवर्ण अर्थात् श्रेष्ट वर्ण वाला।" वैकल्पिक रूप में हिरण्य का अर्थ गढ़ा हुआ सोना और सुवर्ण का अर्थ बिना गढ़ा हुआ सोना है। सुखबोधा और सर्वार्थसिद्धि में यही अभिमत है। ४३. पर्याप्त नहीं है (नालं)
अलं शब्द के तीन अर्थ हैं--पर्याप्त, वारण और भूषण । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने अलं का अर्थ- पर्याप्त और वृत्तिकार ने समर्थ अर्थ किया है। "
इसके दो अर्थ होते हैं-जितना कुश के अग्र भाग पर टिके उतना खाता है यह एक अर्थ है। अर्थ है -कुश दूसरा के अग्र भाग से ही खाता है, अंगुली से उठा कर नहीं खाता। पहले का आशय एक बार खाने से है और दूसरे का कई बार खाने से मात्रा की अल्पता दोनों में है । ४०. सु-आख्यात धर्म (सुवक्वावधम्मस्स)
स्थानांग ( ३।५०७ ) के अनुसार सुअधीत, सुध्यात और सुतपस्थित धर्म स्वाख्यात कहलाता है। इन तीनों का पौर्वापर्य है । जब धर्म सुअधीत होता है, तब वह सुध्यात होता है। जब वह सुध्यात होता है, तब यह सुतपस्थित होता है। इन तीनों की संयुति ही स्वाख्यात धर्म है।
वृत्तिकार का अभिमत यह है--भगवान् ने समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों की विरति को 'धर्म' कहा है, इसलिए उनका धर्म सु-आख्यात है। इसकी समग्रता से आराधना करने वाला स्वाख्यातधर्मा मुनि होता है । ४१. (श्लोक ४४ )
ब्राह्मण ने कहा- 'धर्मार्थी पुरुष को घोर अनुष्ठान करना चाहिए। संन्यास की अपेक्षा गृहस्थाश्रम घोर है, इसलिए उसे छोड़कर संन्यास में जाना उचित नहीं । *
इसके उत्तर में राजर्षि ने कहा- 'घोर होने मात्र से कोई वस्तु श्रेष्ठ नहीं होती। बाल अर्थात् गृहस्थ आश्रम में रहने वाला घोर तप करके भी सर्व सावद्य की विरति करने वाले मुनि की तुलना में नहीं आता, उसके सोलहवें भाग का भी स्पर्श नहीं करता।' धर्मार्थी के लिए घोर अनुष्ठेय नहीं है। उसके लिए अनुष्ठेय है स्वाख्यात धर्म, भले फिर घोर हो या अघोर । गृहस्थाश्रम घोर होने पर भी स्वाख्यात-धर्म नहीं है, इसलिए उसे मैं जो छोड़ रहा हूं, वह अनुचित नहीं है। ४२. चाँदी, सोना (हिरण्णं सुवण्णं)
हिरण्य शब्द चाँदी और सोना दोनों का वाचक है।
9.
वृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : 'कुशाग्रेणैव' तृणविशेषप्रान्तेन भुंक्ते, एतदुक्तं भवति यावत् कुशाग्रे ऽवतिष्ठते तावदेवाभ्यवहरति नातोऽधिकम्, अथवा कुशाग्रेणेति जातावेकवचनं तृतीया तु ओदनेनासी भुंक्त इत्यादिवत् साधकतमत्वेनाभ्यवह्निन्यमा णत्वेऽपि विवक्षितत्वात् ।
२. सुखबोधा, पत्र १५० 'कुशाग्रेणैव' दर्भायेणैव भुंक्ते न तु कराड्गुल्यादिभिः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ ।
४.
वही, पत्र ३१५ यद्यद् घोरं तत्तद् धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयं यथाऽनशनादि, तथा चायं गृहाश्रमः ।
५.
वहीं, पत्र ३१६ यदुक्तम्— 'यद्यद् घोरं तत्तद्धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयमनशनादिवदिति, अत्र घोरत्वादित्यनैकान्तिको हेतु:, घोरस्यापि स्वाख्यातधर्मस्यैव धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयत्वाद्, अन्यस्य त्वात्मविधातादिवत्, अन्यथात्वात्, प्रयोगश्चात्र -यत स्वाख्यातधर्मरूपं न भवति घोरमपि न तद्धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयं यथाऽऽत्मवधादिः तथा च गृहाश्रमः, तद्रूपत्वं चास्य सावद्यत्वाद्धिसावदित्यलं प्रसंगेन ।
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४४. ( अब्भुद ..... संकप्पेण विहन्नसि )
शान्त्याचार्य ने 'अभुदर' का संस्कृत रूप 'अद्भुतकानु' कर इसे भोगों का विशेषण माना है। इसका अर्थ है आश्चर्यकारी भोगों को विकल्प में उन्होंने इसका संस्कृत रूप 'अभ्युदयेअभ्युदय काल में माना है।" प्रस्तुत प्रसंग में यही उपयुक्त व्याख्या है।
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संकल्प का अर्थ है— उत्तरोत्तर भोग-प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा । इसका कहीं अन्त नहीं आता। जैसे-जैसे भोगों की प्राप्ति होती रहती है, अभिलाषा आगे से आगे बढ़ती जाती है। कहा भी है
'अमीषा' स्थूलसूक्ष्माणामिन्द्रियार्थविधायिनाम् । शक्रादयोऽपि दृप्ति, विषयाणामुपागताः ॥' ऐसे संकल्प-विकल्पों के वशीभूत होकर मनुष्य निरंतर प्रताड़ित होता रहता है। "
चूर्णिकार ने यहां असत्संकल्प का ग्रहण किया है। संकल्प-विकल्प की जटिलता से होने वाली हानि को सूचित करने वाली यह कथा है
श्रेष्ठीपुत्र जंबूकुमार प्रव्रजित होने के लिए उत्कंठित है 1 उस समय उसकी नवोढा पत्नियां उसे समझाने का प्रयत्न करती हैं। समुद्रश्री नामक पत्नी ने जंबू को कहा—प्रिय ! आप भी उस भोले किसान की भांति हैं जिसने इक्षु के लोभ में अपने
६.
७.
उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८५: हिरण्यं रजतं शोभनवर्ण सुवर्णम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ 'हिरण्यं' स्वर्ण 'सुवर्ण' शोभनवणं विशिष्टवर्णकमित्यर्थः ।
८.
वही, पत्र ३१६ : यद्वा हिरण्यं--घटितस्वर्णमितरत्तु सुवर्णम् । ६. (क) सुखबोधा, पत्र १५१।
(ख) सर्वार्थसिद्धि पत्र २११।
१०. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८५: अलं पर्याप्तिवारणभूषणेषु, न अलं नालं पर्याप्तिक्षमानि स्युः ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७: अलं समर्थम् ।
११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७ 'अब्भुदए' त्ति अद्भुतकान् आश्चर्यरूपान् ।..... 'अथवा 'अब्भुदए' त्ति अभ्युदये, ततश्च यदभ्युदयेऽपि भोगास्त्वं जहासि तदाश्चर्यं वर्तते ।
१२. वही, पत्र ३१७ ।
१३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८५।
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