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द्रुमपत्रक
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अध्ययन १० : श्लोक १८-२७ टि०११-१७
उत्तम शब्द का प्रयोग क्रम से श्री
कम से क्षीण होती
क्षमा धर्म की प्रकष्ट
तो उनके सार मार्दव आदि धोका नाम उत्तम
का अभाव। यह अभाव धर्म की आराधना में बाधक बनता है। फिर क्रमशः चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय ११. उत्तम धर्म (उत्तम धम्म.....)
का हास होता है। कादंबिनी के एक लेख में इन्द्रियों के हास का चूर्णिकार ने सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत धर्म को उत्तम धर्म माना प्रारम्भ इस प्रकार बताया गया हैहै।' वृत्तिकार ने उत्तम का अर्थ श्रेष्ट किया है।
'मानव जीवन के इस काल में उसकी विभिन्न शक्तियां भी उमास्वाति ने दस यतिधर्मों के साथ उत्तम शब्द का प्रयोग क्रम से क्षीण होती हैं। सबसे पहला लक्षण आंख पर प्रकट होता किया है। क्षमा धर्म की प्रकष्ट साधना का नाम उत्तम क्षमा ई है। आंख के लेंस के लचीलेपन की कमी दसवें वर्ष में ही प्रारम्भ गर्म है। इसी प्रकार मार्दव आदि धर्मों की प्रकृष्ट साधना होती है हो जाती है और साठ वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वह तो उनके साथ उत्तम शब्द का प्रयोग होता है।
समाप्त हो जाती है। आंख की शक्ति के क्षय के दूसरे लक्षण १२. कुतीर्थिकों (कुतित्थि)
हैं-दृष्टि के प्रसार में कमी, किसी चीज का साफ-साफ नजर कुतीर्थिकों का अर्थ 'एकान्तदृष्टि वाला' और 'असत्य
न आना तथा हल्के प्रकाश में दिखलाई न पड़ना। ये लक्षण ४० मंतव्य वाला दार्शनिक' है। वह जन-रुचि के अनुकूल उपदेश
वर्ष की उम्र में प्रारम्भ होते हैं। इसी प्रकार मानव की दूसरी देता है इसीलिए उसकी सेवा करने वाले को उत्तम धर्म सुनने
शक्तियां भी कम होती हैं। स्वाद की तेजी ५० वर्ष की उम्र में का अवसर ही नहीं मिलता।
घटने लगती है और घ्राण शक्ति ६० वर्ष की उम्र में। श्रवण १३. कामगुणों में मूञ्छित (कामगुणेहिं मुच्छिया)
शक्ति का क्षय तो २० वर्ष की उम्र में ही प्रारम्भ हो जाता है।
मानव मस्तिष्क की ग्रहण-शक्ति २२ वर्ष की उम्र में सबसे _ 'कामगुण' का अर्थ है-इन्द्रियों के शब्द आदि विषय । गुण
अधिक होती है और उसके बाद घटती है पर वह अत्यन्त अल्प शब्द आयारो में भी विषय के अर्थ में प्रयुक्त है। जैसे मनुष्य
गति से। ४० वर्ष की उम्र के बाद घटने का क्रम कुछ बढ़ जाता पित्त आदि के प्रकोप से होने वाली मूर्छा से मूच्छित होकर लौकिक अपायों-दोषों का चिंतन नहीं कर पाता, वैसे ही मनुष्य
है और ८० वर्ष की उम्र तक पहुंचने पर वह फिर उतनी रह
जाती है। इन्द्रिय-विषयों में मूच्छित होकर उसके परिणामों का चिन्तन नहीं करता हुआ दुःखी होता है।
१६. सब प्रकार का पूर्ववर्ती बल (सव्वबले) आतुर व्यक्ति अपथ्य विषयों के प्रति आकर्षित होता है
चूर्णि में 'सर्वबल' के दो अर्थ प्राप्त हैं-इन्द्रियों की शक्ति प्रायेण हि यदपध्यं तदेव चातुरजनप्रियं भवति।
___ अथवा शारीरिक, वाचिक और मानसिक शक्ति।
शारीरिक शक्ति-प्राणबल, बैठने-चलने की शक्ति। विषयातुरस्य जगतस्तथानुकूला: प्रिया विषयाः।।
वाचिक शक्ति स्निग्ध, गंभीर और सुस्वर में बोलने की १४. जीर्ण हो रहा है (परिजूरइ)
शक्ति । इसका संस्कृत रूप 'परिजीर्यति' होता है और प्राकृत में
मानसिक शक्ति-ग्रहण और धारण करने में क्षम मनोबल। 'निद्' और 'खिद्' धातु को 'जूर' आदेश होता है। इसलिए
शान्त्याचार्य ने भी सर्वबल के दो अर्थ किए हैं'परिजूरइ' का अनुवाद 'जीर्ण हो रहा है' के अतिरिक्त 'अपने १. हाथ, पैर आदि शारीरिक अवयवों की शक्ति। आपको कोस रहा है' या 'खिन्न हो रहा है' भी हो सकता है।
२. मन, वचन और काया की ध्यान, अध्ययन, चंक्रमण १५. (श्लोक २०-२५)
आदि चेष्टाएं। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में इन्द्रिय-विकास का १७. पित्त-रोग (अरई) क्रम इस प्रकार है-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। अरति के अनेक अर्थ होते हैं। शान्त्याचार्य ने इसका
प्रस्तुत पांच सूत्रों में इन्द्रियों में हास का क्रम बतलाया अर्थ 'वायु आदि से उत्पन्न होने वाला चित्त का उद्वेग' किया गया है। सबसे पहले श्रोत्रेन्द्रिय का हास होना प्रारम्भ होता है, है।" किन्तु इस श्लोक में शरीर का स्पर्श करने वाले रोगों का
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०: उत्तमा–अनन्यतुल्या सर्वज्ञोक्ता धर्मस्य..। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७ : उत्तमधर्मविषयत्वादुत्तमा। ३. तत्त्वार्थसूत्र ६६ : उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशीचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्-
चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७ : कुत्सितानि च तानि तीर्थानि कुतीर्थानि च-
शाक्यौलूक्यादिप्ररूपितानि तानि विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनस्तान्नितरा सेवते यः स कुतीर्थिनिषेवको जनो-लोकः कुतीर्थिनो हि यशः सत्काराद्येषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयादि तदेवोपदिशन्ति, ततीर्थकृतामप्येवंविधत्वात्, उक्तं हिसत्कारयशोलाभार्थिभिश्च मूरिहान्यतीर्थकरैः । अवसादितं जगदिदं प्रियाण्यपथ्यान्युपदिशद्भिः।।
इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेविनां च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः? ५. बृहवृत्ति, पत्र ३३८।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २३८ : यद् वा 'परिजूरइ' त्ति निन्देजूर इति प्राकृतलक्षणात्
परिनिन्दतीवात्मानमिति गम्यते, यथा-धिग्मां कीदृशं जातमिति। ७. हेमशब्दानुशासन, ८।४।१३२ : खिदेजुरविसूरी। ८. कादम्बिनी, सितम्बर १९८५, 'जवानी के बिना यह देह शव है'
रतनलाल जोशी। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१। १०. बृहवृत्ति, पत्र २२८।। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३८ : 'अरतिः' वातादिजनितश्चित्तोद्वेगः ।
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