________________
उत्तरज्झयणाणि
१९०
अध्ययन १० :श्लोक २८-३१ टि०१८-२२
उल्लेख है। इस दृष्टि से अनुवाद में इसका अर्थ 'पित्त-रोग' जल में उत्पन्न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार किया गया है। अरति का अर्थ पित्त-रोग भी है।'
जो कामों से अलिप्त रहता है, वह ब्राह्मण है। निर्लेपता के १८. हैजा (विसूचिका)
लिए कुमुद और जल दो ही शब्द पर्याप्त हैं। स्नेह शारद-जल यह वह रोग है जो शरीर में सूई की भांति चुभन पैदा
की तरह मनोरम होता है, यह दिखलाने के लिए शारद-पानीय करता है। वृत्तिकार ने इसे अजीर्ण-विशेष माना है। आज की
का प्रयोग किया गया है। धम्मपद में 'पाणिना' में तृतीया भाषा में इसे 'हैजा' कहा जा सकता है।
विभक्ति का एक वचन है और उसका अर्थ है 'हाथ'। प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र ने अन्य उत्तराध्ययन
उत्तराध्ययन में 'पाणियं' द्वितीया का एकवचन है और इसका अनेक रोगों के नाम गिनाए हैं-श्वास, खांसी, ज्वर, दाह, अथ
__ अर्थ है 'जल'। कुक्षिशूल, भगंदर, अर्स, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखशूल, अरुचि, २०. (श्लाक ३१) अक्षिवेदना, खाज, कर्णबाधा, जलोदर, कोढ आदि।
चूर्णि और टीका में 'बहुमए' का अर्थ 'मार्ग' और १९. (श्लोक २८)
'मग्गदेसिए' का अर्थ 'मोक्ष को प्राप्त करने वाला किया है। इस श्लोक में भगवान् ने गौतम को स्नेह-मुक्त होने का
इसके अनुसार इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार होगाउपदेश दिया है। गौतम पदार्थों में आसक्त नहीं थे। विषय-भोगों
“आज जिन नहीं दीख रहे हैं फिर भी उनके द्वारा निरूपित मोक्ष में भी उनका अनुराग नहीं था। केवल भगवान् से उन्हें स्नेह
को प्राप्त कराने वाला मार्ग दीख रहा है यह सोच भव्य लोग था। भगवान् स्वयं वीतराग थे। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनके
प्रमाद से बचेंगे। अभी मेरी उपस्थिति में तुझे न्यायपूर्ण पथ प्राप्त स्नेह-बंधन में बंधे। भगवान् के इस उपदेश की पृष्ठ-भूमि में
है, इसलिए.....।" किन्तु 'मग्गदेसिए' का अर्थ 'मार्ग का उपदेश उस घटना का भी समावेश होता है, जिसका एक प्रसंग में
देने वाला' और 'बहुमए' का अर्थ 'विभिन्न विचार रखने वाला' भगवान् ने स्वयं उल्लेख किया था। भगवान् ने कहा था
सहज संगत लगता है, इसलिए हमने अनुवाद में इन शब्दों का “गौतम ! तू मेरा चिरकालीन सम्बन्धी रहा है।"
यही अर्थ किया है। प्रस्तुत-श्लोक के प्रथम दो चरण धम्मपद के मार्ग-वर्ग २१. (श्लोक ३२) श्लोक १३ से तुलनीय हैं
कंटकापहं—इसका अर्थ है.-कांटों से भरा मार्ग। कांटे 'उच्छिद सिनेहमत्तनो कमदं सारदिक व पाणिना- दो प्रकार के होते हैं-(१) द्रव्य-कंटक...-बबल आदि के कांटे अर्थात्-अपने प्रति आसक्ति को इस तरह काट दो जैसे
कोको और (२) भाव-कंटक-मिथ्या या एकान्तदृष्टि वाले दार्शनिकों के
आर (२) भाव
वचन। शरद् ऋतु में हाथों से कमल का फूल काट दिया जाता है। शरद् ऋतु का कमल इतना कोमल होता है कि वह सहज
पहं महालयं यहां पथ का अर्थ है--सम्यग् दर्शन, ही हाथों से काटा जा सकता है। यह धम्मपद गत उपमा का
__ सम्यग् चारित्रमय मोक्षमार्ग। महालय का अर्थ है—महामार्ग।" आशय है। उत्तराध्ययन के टीकाकारों ने इस उपमा का आशय २२. दृढ़ निश्चय के साथ (विसोहिया) इस प्रकार व्यक्त किया है.---"कुमुद पहले जल-मग्न होता है इसका संस्कृत रूप है—विशोध्य। चूर्णिकार ने इसका और बाद में जल के ऊपर आ जाता है।"
अर्थ-अतिचार से रहित करके किया है।" वृत्ति में इसका निर्लेपता के लिए कमल की उपमा का प्रयोग सहज रूप अर्थ है-निश्चय करके। में होता है। उत्तराध्ययन २५।२६ में लिखा है कि जैसे पद्म एक आचार्य अपने तीन शिष्यों के साथ एक नगर में
१. चरकसंहिता, ३०६८:
कमला वातरक्तं च, विसर्प हच्छिरोग्रहम।
उन्मादारत्यपरमारान्, वातपित्तात्मकान् जयेत।। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१ : सूचिरिव विध्यतीति विसूचिका। (ख) वृहवृत्ति, पत्र २३८ : विध्यतीव शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका-
अजीर्णविशेषः । सुखबोधा, पत्र १६३: सासे खासे जरे डाहे, कुच्छिसूले भगंदरे। अरिसा अजीरए दिट्ठीमुहसूले अरोयए।। अच्छिवेयण कंडू य, कन्नाबाहा जलोयरे।
कोढे एमाइणो रोगा, पीलयंति सरीरिण।। ४. भगवती, १४७। ५. बृहवृत्ति, पत्र ३३६ : 'पानीयं' जलं, यथा तत् प्रथमं जलमग्नमपि
जलमपहाय वर्तते तथा त्वमपि चिरसंसृष्टचिरपरिचितत्वादिभिर्मद्विषय
स्नेहवशगोऽपि तमपनय। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३६ : इह च जलमपहायतावति सिद्धे यच्छारदशब्दोपादानं
तच्छारदजलस्येवस्नेहस्याप्यातिमनोरमत्वख्यापनार्थम् । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६२ : बहुमतो णाम पंथो।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३३६ : 'बहुमए' त्ति पन्थाः । ८. सुखबोधा, पत्र १६४ : 'मग्गदेसिय' ति माय॑माणत्वाद मार्गः-मोक्षरतस्य
'देसिए' त्ति सूत्रत्वात् देशक:-प्रापको मार्गदेशकः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६२-१९३। १०. वही, पृ० १६३ : पथं सम्यग्दर्शनचारित्रमयं । महालय ति आलीयन्ते
तस्मिन्नित्यालयः महामार्ग इत्यर्थः । ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ : विशोधयितुं अतिचारविरहितं कृत्येत्यर्थः । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४०: विशोध्य इति विनिश्चित्य।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org