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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ६ : श्लोक ३६-४४
पंचेन्द्रियाणि क्रोधः मानो माया तथैव लोभश्च । दुर्जयश्चैव आत्मा सर्वमात्मनि जिते जितम् ।।
पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिये जाते हैं।
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। इष्ट्वा विपुलान् यज्ञान् भोजयित्वा श्रमण-ब्राह्मणान्। दत्वा भुक्चा च इष्ट्वा च ततो गच्छ क्षत्रिय!।।
हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रचुर यज्ञ करो, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो, भोग भोगो और यज्ञ करो, फिर मुनि बन जाना।३५
यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा
एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।।
३६.पंचिंदियाणि कोहं
माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं
सव्वं अप्पे जिए जियं ।। ३७.एयमलै निसामित्ता
हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं
देविंदो इणमब्बवी।। ३८.जइत्ता विउले जन्ने
भोइत्ता समणमाहणे। दच्चा भोच्चा य जट्ठा य
तओ गच्छसि खत्तिया !।। ३६.एयमलै निसामित्ता
हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी
देविंदं इणमब्बवी।। ४०.जो सहस्सं सहस्साणं
मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ
अदितस्स वि किंचण।। ४१.एयमलृ निसामित्ता
हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं
देविंदो इणमब्बवी।। ४२.घोरासमं चइत्ताणं
अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ .
भवाहि मणुयाहिवा!।। ४३.एयमलृ निसामित्ता
हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी
देविंदं इणमब्बवी।। ४४.मासे मासे तु जो बालो
कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ।।
जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे।३६
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
यः सहनं सहस्मणां मासे मासे गाः दद्यात्। तस्यापि संयमः श्रेयान् अददतोऽपि किंचन।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। घोराश्रमं त्यक्चा अन्यं प्रार्थयसे आश्रमम्। इहैव पौषधरतः भव मनुजाधिप !।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। मासे मासे तु यो बालः कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते। न स स्वाख्यातधर्मणः कलामर्हति षोडशीम् ।।
हे मनुजाधिप ! तुम घोराश्रम (गार्हस्थ्य) को छोड़ कर दूसरे आश्रम (संन्यास) की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं। तुम यहीं रह कर पौषध में रत२७ होओ-अणुव्रत, तप आदि का पालन करो। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा
कोई बाल (गृहस्थ) मास-मास की तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार" करे तो भी वह सु-आख्यात धर्म–चारित्र धर्म की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता।
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