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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ६ : श्लोक ५४-६२ ५४.अहे वयइ कोहेणं
अधो व्रजति क्रोधेन
मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम माणेणं अहमा गई। मानेनाधमा गतिः।
गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। माया गईपडिग्घाओ मायया गतिप्रतिघातः
लोभ से दोनों प्रकार का—ऐहिक और पारलौकिकलोभाओ दुहओ भयं ।। लोभाद् द्विधा भयम्।।
भय होता है। ५५.अवउज्झिऊण माहणरूवं अपोज्झ्य ब्राह्मण-रूपं
देवेन्द्र ने ब्राह्मण का रूप छोड़, इन्द्र रूप में प्रकट हो विउव्विऊण इंदत्तं। विकृत्येन्द्रत्वम्।
नमि राजर्षि को वन्दना की और वह इन मधुर शब्दों वंदइ अभित्थुणंतो वन्दतेऽभिष्टुवन्
में स्तुति करने लगा-- इमाहि महुराहिं वग्गूहिं।। आभिर्मधुराभिर्वाग्भिः।। ५६.अहो! ते निज्जिओ कोहो अहो ! त्वया निर्जितः क्रोधः हे राजर्षि ! आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता है!
अहो! ते माणो पराजिओ। अहो! त्वया मानः पराजितः। आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है ! आश्चर्य अहो! ते निरक्किया माया अहो ! त्वया निराकृता माया है तुमने माया को दूर किया है ! आश्चर्य है तुमने
अहो! ते लोभो वसीकओ।। अहो ! त्वया लोभो वशीकृतः।। लोभ को वश में किया है! ५७.अहो! ते अज्जवं साहु अहो ! ते आर्जवं साधु
अहो! उत्तम है तुम्हारा आर्जव। अहो! उत्तम है अहो! ते साहु मद्दवं। अहो! ते साधु मार्दवम्। तुम्हारा मार्दव। अहो ! उत्तम है तुम्हारी क्षमा या अहो! ते उत्तमा खंती अहो! ते उत्तमा क्षान्तिः सहिष्णुता। अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता।
अहो! ते मुत्ति उत्तमा।। अहो ! ते मुक्तिरुत्तमा।। ५८.इहं सि उत्तमो भंते ! इहास्युत्तमो भदन्त !
भगवन् ! तुम इस लोक में भी उत्तम हो और परलोक पेच्चा होहिसि उत्तमो। प्रेत्य भविष्यस्युत्तमः। में भी उत्तम होओगे। तुम कर्म-रज से मुक्त होकर लोगुत्तमुत्तमं ठाणं लोकोत्तमोत्तमं स्थानं
लोक के सर्वोत्तम स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करोगे। सिद्धिं गच्छसि नीरओ।। सिद्धिं गच्छसि नीरजाः।। ५६.एवं अभित्थुणंतो
एवमभिष्टुवन्
इस प्रकार इन्द्र ने उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति रायरिसि उत्तमाए सखाए। राजर्षिमुत्तमया श्रद्धया। की और प्रदक्षिणा करते हुए बार-बार वन्दना की। पयाहिणं करेंतो
प्रदक्षिणां कुर्वन् पुणो पुणो वंदई सक्को। पुनः पुनन्दिते शक्रः।। ६०.तो वंदिऊण पाए
ततो वन्दित्वा पादौ
इसके पश्चात् मुनिवर नमि के चक्र और अंकुश से चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स। चक्रांकुशलक्षणौ मुनिवरस्य। चिन्हित चरणों में वन्दना कर ललित और चपल आगासेणुप्पइओ आकाशेनोत्पतितः
कुण्डल एवं मुकुट को धारण करने वाला इन्द्र ललियचवलकुंडलतिरीडी।। ललितचपलकुण्डलकिरीटी।। आकाश-मार्ग से चला गया। ६१.नमी नमेइ अप्पाणं
नमिर्नमयत्यात्मानं
नमि राजर्षि ने अपनी आत्मा को नमा लिया - सक्खं सक्केण चोइओ। साक्षाच्छक्रेण चोदितः।
संयम के प्रति समर्पित कर दिया। वे साक्षात् देवेन्द्र के चइऊण गेहं वइदेही त्यक्त्वा गृहं वैदेहीं
द्वारा प्रेरित होने पर भी धर्म से विचलित नहीं हुए सामण्णे पज्जुवट्ठिओ।। श्रामण्ये पर्युपस्थितः।।
और गृह और वैदेही (मिथिला) को त्याग कर
श्रामण्य में उपस्थित हो गये। ६२.एवं करेंति संबुद्धा
एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः
संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष इसी प्रकार पंडिया पवियक्खणा। पण्डिताः प्रविचक्षणाः।
करते हैं वे भोगों से निवृत्त होते हैं जैसे कि नमि विणियटॅति भोगेसु विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः
राजर्षि हुए। जहा से नमी रायरिसि।। यथा स नमिः राजर्षिः।।
-त्ति बेमि।
-इति ब्रवीमि।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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