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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ६:श्लोक २०-२४ टि०२५-३०
और चौड़ी होती थी। उसमें जल भरा रहता था इसलिए सम्बन्धित हैं। सिंहद्वार को किवाड़ों पर भीतर से अर्गला देकर शत्रु-सेना उसे सहज ही पार नहीं कर पाती थी। 'उस्सूलग' का बन्द किया जात था। शान्त्याचार्य ने गोपुर शब्द के द्वारा दूसरा अर्थ ऊपर से ढंका हुआ गड्ढा भी किया गया है। जार्ल अर्गला'३—कपाट का सूचन किया है। अर्गला शब्द गोपुर का सरपेन्टियर के अभिमत में 'उस्सूलग' का अर्थ 'खाई' यथार्थ सूचक है। नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में 'उच्छूलग' शब्द है। चूर्णि, बृहद्वृत्ति २६. त्रिगुप्त (तिगुत्त)
और सखबोधा में 'उस्सुलग' है। बीसवें श्लोक के 'तिगुत्त' शब्द त्रिगप्त प्राकार का विशेषण है। इसके अठारहवें श्लोक में की व्याख्या में, बृहदवृत्ति में 'उच्चूलक' और सुखबोधा में अद्रालग. उस्सलग और सयग्घी--इन तीनों शब्दों का संग्रह 'उच्छ्रलक' पाट है। इससे जान पड़ता है कि 'उस्सूलग' और किया गया है। इनके द्वारा जैसे प्राकार सुरक्षित होता है वैसे ही 'उच्छूलग' एक शब्द के ही दो रूप हैं।
मन, वचन और काया की गुप्तियों से क्षमा अथवा सहिष्णुता जार्ल सरपेन्टियर ने इसका अर्थ 'ध्वज' किया है। रूपी प्राकार सुरक्षित होता है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में 'ओचूलग' (अवचूलक) शब्द आया है। २७. ईर्यापथ (इरियं) वत्तिकार ने उसका अर्थ 'अधोमुखांचल-नीचे लटकता हुआ चर्णि और वत्ति में ईर्या का अर्थ ईर्यासमिति किया गया वस्त्र' किया है। इसलिए 'उस्सूलग' या 'उच्चूलक' का अर्थ है किन्त पराक्रम और धति ..इन दोनों के साथ ईर्यासमिति 'ध्वज' भी किया जा सकता है। किन्तु 'तिगुत्त' शब्द को देखते
___ की कोई संगति नहीं है। इसलिए यहां ईर्या का अर्थ--ईर्यापथहए इसका अर्थ खाई या गड्ढा होना चाहिए। नगर की गुप्ति- जीवन की समग्रचर्या होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में 'ईर्यापथ' सुरक्षा के लिए प्राचीन काल में खाई का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा यी अर्थ में व्यवहत है।
२८. मूठ (केयणं) 'सयग्घी' का अर्थ है शतघ्नी। यह एक बार में सौ
धनुष के मध्य भाग में जो काठ की मुष्टि होती है, उसे व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र है। कौटिल्य ने इसे
'केतन' कहा जाता है। 'चल-यंत्र' माना है। अर्थशास्त्र की व्याख्या के अनुसार शतघ्नी
२९.वर्द्धमानगृह (वद्धमाणगिहाणि) का अर्थ है. दुर्ग की दीवार पर रखा हुआ एक विशाल स्तंभ, जिस पर मोटी और लम्बी कीलें लगी हुई हों।
चूर्णि और टीका में इसका स्पष्ट अर्थ नहीं है। मोनियर आचार्य हेमचन्द्र ने 'सयग्घी' को देशी शब्द भी माना है। मोनियर-विलियम्स ने इसका अर्थ 'वह घर जिसमें दक्षिण की इसका पर्यायवाची शब्द 'घरट्टी' है। शेषनाममाला में इसके दो
ओर द्वार न हो' किया है। मत्स्यपुराण का भी यही अभिमत पर्यायवाची नाम हैं—चतुस्ताला और लोहकण्टकसंचिता।" इसके
है। वास्तुसार में घरों के चौसठ प्रकार बतलाए हैं। उनमें अनुसार यह चार बालिश्त की और लोहे के कांटों से संचित
तीसरा प्रकार वर्धमान है। जिसके दक्षिण दिशा में मुखवाली होती थी। इसे एक बार में सैकड़ों पत्थर फेंकने का यंत्र,
गावी शाला हो, उसे वर्धमान कहा है।२० आधुनिक तोप का पूर्व रूप कहा जा सकता है।
डॉ० हरमन जेकोबी ने वराहमिहिर की संहिता (५३३६) प्राकार, गोपुर-अट्टालक, परिखा और शतघ्नी—ये प्राचीन
के आधार पर माना है कि यह समस्त गृहों में सुन्दर होता है।" नगरों, दुर्गों या राजधानियों के अभिन्न अंग होते थे।२
वर्धमान गृह धनप्रद होता है।२२ २५. अर्गला (अग्गलं)
३०. चन्द्रशाला (बालग्गपोइयाओ) गोपुर (सिंहद्वार), किवाड़ और अर्गला—ये तीनों परस्पर
यह देशी शब्द है। इसका अर्थ 'वलभी' है। वलभी के
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११: परबलपातार्थमुपरिच्छादितगर्ता वा। 2. The Uttaradhyayana Sutra. p. 314. ३. सर्वार्थसिन्ति, पृ० २०७ : 'उठूलग' त्ति खातिका। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : सुखबोधा, पत्र १४८ । ५. The Uttaridhyayana Sutra, p. 314. ६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३६१। ७. कालीदास का भारत, पृ०२१८ : रामायणकालीन संस्कृति, पृ०२१३। ८. वृहदवृत्ति, पब ३११: शतं घ्नन्तीति शतज्यः, ताश्च यंत्रविशेषरूपाः ।। ६. कौटिल्य अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय १८, सूत्र ७। १०. देशीनाममाला ८1५, पृ० ३१५ । ११. शेषनाममाला, श्लोक १५०, पृ० ३६९: शतघ्नी तु चतुस्ताला,
लोहकण्टकसंचिता। १२. कौटिल्य अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय ३, सूत्र ।
१३. सुखबोधा, पत्र ३११ : गोपुरग्रहणमगलाकपाटोपलक्षणम् । १४. वही, पत्र ३११ : तिसृभिः-अट्टालकोच्चुलकशतघ्नीसंस्थानीया
भिर्मनोगुप्त्यादिभिर्गुप्तिभिः गुप्तं त्रिगुप्त, मयूरव्य॑सकादित्वात समासः । १५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३।।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३११। १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : 'केतनं' शृङ्गमयधनमध्ये काष्टमयमुष्टिकात्मकम् । १७. A Sanskrit English Dictionary. p. 926. १८. मत्स्यपुराण, पृ० २५४ : दक्षिणद्वारहीनं तु वर्धमानमुदाहृतम् । १६. वास्तुसार, ७५ पृ० ३६। २०. वास्तुसार, ८२, पृ०३८। २१. Sucred Books of the East. Vol, XLV. The Uttaradhyayana Sutra,
p. 38. Foot Note, 1. २२. वाल्मीकी रामायण, ५१८ : दक्षिणद्वाररहित वर्धमानं मुष्टिधनप्रदम् ।
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