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नमि-प्रव्रज्या
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अध्ययन ६ : श्लोक ६-१७ मिथिला में एक चैत्य-वृक्ष" था, शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र, पुष्प और फलों से लदा हुआ और बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी।"
मिथिलायां चैत्यो वृक्षः शीतच्छायो मनोरमः। पत्रपुष्पफलोपेतः बहूनां बहुगुणः सदा।। वातेन हियमाणे चैत्ये मनोरमे। दुःखिता अशरणा आर्ताः एते क्रन्दन्ति भोः! खगाः।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिं राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। एषोऽग्निश्च वायुश्च एतद् दह्यते मन्दिरम्। भगवन् ! अन्तःपुरं तेन कस्मान्नावप्रेक्षसे ?!!
एक दिन हवा चली और उस मनोरम चैत्य-वृक्ष को उखाड़ कर फेंक दिया। हे ब्राह्मण ! उसके आश्रित रहने वाले ये पक्षी दुःखी, अशरण और पीड़ित होकर
आक्रन्दन कर रहे हैं। इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
यह अग्नि है और यह वायु है। यह आपका मन्दिर जल रहा है। भगवन् ! आप अपने रनिवास की ओर क्यों नहीं देखते ?
यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा
६. मिहिलाए चेइए वच्छे
सीयच्छाए मणोरमे। पत्तपुप्फफलोवेए
बहूणं बहुगुणे सया।। १०.वाएण हीरमाणंमि
चेइयंमि मणोरमे। दुहिया असरणा अत्ता
एए कंदंति भो! खगा।। ११.एयम8 निसामित्ता
हेऊकारणचोइयो। तओ नमिं रायरिसिं
देविंदो इणमब्बवी।। १२.एस अग्गी य वाऊ य
एयं डज्झइ मंदिरं। भयवं! अंतेउरं तेणं
कीस णं नावपेक्खसि ? || १३.एयमढें निसामित्ता
हेऊकारणचोइयो। तओ नमी रायरिसी
देविंदं इणमब्बवी।। १४.सुहं वसामो जीवामो
जेसिं मो नत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए
न मे डज्झइ किंचण।। १५.चत्तपुत्तकलत्तस्स
निव्वावारस्स भिक्खुणो। पियं न विज्जई किंचि
अप्पियं पि न विज्जए।। १६.बहुं खु मुणिणो भई
अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वओ विप्पमुक्कस्स
एगंतमणुपस्सओ।। १७.एयमलृ निसामित्ता
हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।।
एतदर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।।
सुखं वसामो जीवामः येषां नः नास्ति किंचन। मिथिलायां दह्यमानायां न मे दह्यते किंचन।।
वे हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुखपूर्वक रहते और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है।
पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त२० भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती।
त्यक्तपुत्रकलत्रस्य नियापारस्य भिक्षोः। प्रियं न विद्यते किंचित् अप्रियमपि न विद्यते।। बहु खलु मुनेर्भद्रं अनगारस्य भिक्षोः। सर्वतो विप्रमुक्तस्य एकान्तमनुपश्यतः।।
सब बन्धनों से मुक्त, 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं'– इस प्रकार एकत्व-दर्शी", गृह-त्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को विपुल सुख होता है।
इस अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।।
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