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नमि-प्रव्रज्या
किया और उसकी स्तुति कर चला गया।
प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र राजा नमि को राज्यधर्म के विविध कर्त्तव्यों की याद दिलाता है और महर्षि नमि उन सारे कर्त्तव्यों के प्रतिपक्ष में आत्मधर्म की बात करते हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में राज्यधर्म और आत्मधर्म के अनेक बिन्दु अभिव्यक्त हुए हैं-
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राज्यधर्म
निजी संपत्ति या स्वजनों की रक्षा (श्लोक १२) । देश-रक्षा के लिए प्राकार आदि का निर्माण
(श्लोक १८) ।
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प्रासाद, वर्धमानगृहों आदि का निर्माण (श्लोक २४ ) | ★ अपराधी व्यक्तियों का निग्रह ( श्लोक २८ ) ।
★ राजाओं पर विजय ( श्लोक ३२ ) ।
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यज्ञ, ब्रह्मभोज आदि से कीर्ति का अर्जन
( श्लोक ३८ ) |
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अध्ययन : आमुख
कोशागार का संवर्धन ( श्लोक ४६ ) । आत्मधर्म
प्रिय अप्रिय कुछ भी नहीं। मैं अकेला हूं-यही यथार्थबोध (श्लोक १५-१६)
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सुरक्षा का साधन-संयम । शारीरिक और मानसिक दुःखों से रक्षा ही यथार्थ रक्षा (श्लोक २०-२२ ) शाश्वत स्थान मोक्ष के प्रति जागरूकता । (श्लोक २६-२७)
अपनी दुष्प्रवृत्ति का निग्रह (श्लोक २० ) इन्द्रिय-विजय, आत्म-विजय (श्लोक ३४-३६)
संयम ही श्रेयस्कर । (श्लोक ४० )
संन्यास की श्रेष्ठता । ( श्लोक ४४ )
संतोष का संवर्धन । लोभ को अलोभ से जीतना । ( श्लोक ४८ - ४६ )
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