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कपिलीय
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अध्ययन ८: श्लोक १७-२० १७. जहा लाहो तहा लोहो, यथा लाभस्तथा लोभः
जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है। लाभ से लाहा लोहो पवड्ढई। लाभाल्लोभः प्रवर्धते।
लोभ बढ़ता है।६ दो माशे सोने से पूरा होने वाला दोमासकयं कज्जं, द्विमाषकृतं कार्य
कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। कोडीए वि न निट्ठियं ।। कोट्याऽपि न निष्ठितम् ।। १८. नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, न राक्षसीषु गृध्येत्
वक्ष में ग्रन्थि (स्तनों) वाली, अनेक चित्त वाली" गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु। गण्डवक्षस्स्वनेकचित्तासु। तथा राक्षसी की भांति भयावह स्त्रियों में आसक्त न जाओ पुरिसं पलोभित्ता, याः पुरुष प्रलोभ्य
हो, जो पुरुष को प्रलोभन में डालकर उसे दास की खेल्लंति जहा व दासेहिं।। खेलन्ति यथेव दासैः।। भांति नचाती हैं ।३३ १६. नारीसु नो पगिज्झेज्जा, नारीषु नो प्रगृध्येत्
स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार उनमें गृद्ध न बने। इत्थीविप्पजहे अणगारे। स्त्रीविप्रजहोऽनगारः। भिक्षु धर्म को अति मनोज्ञ* जानकर उसमें अपनी धमं च पेसलं नच्चा, धर्म च पेशलं ज्ञात्वा
आत्मा को स्थापित करे।२५ तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं।। तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम् ।। २०. इइ एस धम्मे अक्खाए, इत्येष धर्म आख्यातः इस प्रकार विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल ने यह धर्म कहा।
कविलेणं च विसुद्धपण्णेणं। कपिलेन च विशुद्धप्रज्ञेन। जो इसका आचरण करेंगे वे तरेंगे और उन्होंने दोनों तरिहिंति जे उ काहिंति, तरिष्यन्ति ये तु करिष्यन्ति लोकों को आराध लिया।३६ तेहिं आराहिया दुवे लोग।। तैराराधितौ द्वौ लोकौ।। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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