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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ८ : आमुख
जो व्यक्ति प्रातःकाल उसे सबसे पहले बधाई देता है उसे वह दो भीतर करोड़ से भी अधिक मूल्यवान वस्तु पैदा हो गई है। मैं माशा सोना देता है। तुम वहां जाओ। उसे बधाई देकर दो माशा अब करोड़ मोहरों का क्या करूं?" मुनि कपिल राजा के सोना ले आओ। इससे मैं पूर्णता से महोत्सव मना लूंगी।" सान्निध्य से दूर चला गया। साधना चलती रही। वे मुनि छह
कपिल ने बात मान ली। कोई व्यक्ति उससे पहले न पहुंच मास तक छमस्थ अवस्था में रहे। जाए, यह सोच वह तुरन्त घर से रवाना हो गया। रात्रि का राजगृह और कौशाम्बी के बीच १८ योजन का एक समय था। नगर-आरक्षक इधर-उधर घूम रहे थे। उन्होंने उसे महाअरण्य था। वहां बलभद्र प्रमुख इक्कडदास जाति के पांच सौ चोर समझ पकड़ कर बांध लिया और प्रभात में प्रसेनजित राजा चोर रहते थे। कपिल मुनि ने एक दिन ज्ञान-बल से जान लिया के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने उससे रात्रि में अकेले घूमने कि सभी चोर एक दिन अपनी पापकारी वृत्ति को छोड़कर संबुद्ध का कारण पूछा। कपिल ने सहज व सरल भाव से सारा वृत्तान्त हो जाएंगे। उन सबको प्रतिबोध देने के लिए कपिल मुनि सुना दिया। राजा उसकी स्पष्टवादिता पर बहुत प्रसन्न हुआ श्रावस्ती से चलकर उस महा अटवी में आए। चोरों के और बोला-"ब्राह्मण ! आज मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूं। तू जो सन्देशवाहक ने उन्हें देख लिया। वह उन्हें पकड़ अपने सेनापति कुछ मांगेगा वह मिलेगा।" कपिल ने कहा-“राजन् ! मुझे सोचने के पास ले गया। सेनापति ने इन्हें श्रमण समझ कर छोड़ते हुए का कुछ समय दिया जाए।" राजा ने कहा-“यथा इच्छा।" कहा-“श्रमण ! कुछ संगान करो।" श्रमण कपिल ने हावभाव
कपिल राजा की आज्ञा ले अशोक वनिका में चला गया। से संगान शुरू किया। “अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए. वहां उसने सोचा--"दो माशा सोने से क्या होगा? क्यों न मैं सौ ....”—यह ध्रुवपद था। प्रत्येक श्लोक के साथ यह गाया जाता मोहरें मांग लूं ?" चिन्तन आगे बढ़ा। उसे सौ मोहरें भी तुच्छ था। वहां उपस्थित सभी चोर “अधुवे असासयंमि" का सह-संगान लगने लगीं। हजार, लाख, करोड़ तक उसने चिन्तन किया। करते हुए ताली बजाने लगे। उनके द्वारा इस पद्य का पुनरुच्चारण परन्तु मन नहीं भरा। सन्तोष के बिना शान्ति कहां? उसका मन हो जाने पर कपिल ने आगे के श्लोक कहे। कई चोर प्रथम आंदोलित हो उठा। तत्क्षण उसे समाधान मिल गया। मन वैराग्य श्लोक सुनते ही संबुद्ध हो गए, कई दूसरे, कई तीसरे, कई चौथे से भर उठा। चिन्तन का प्रवाह मुड़ा। उसे जाति-स्मृति-ज्ञान श्लोक आदि सुनकर । इस प्रकार पांच सौ चोर प्रतिबद्ध हो गए। प्राप्त हो गया। वह स्वयं-बुद्ध हो गया। वह स्वयं अपना लुंचन मुनि कपिल ने उन्हें दीक्षा दी और वे सभी मुनि हो गए। कर, प्रफुल्ल वदन हो राजा के पास आया। राजा ने पूछा-“क्या प्रसंगवश इस अध्ययन में ग्रन्थित्याग, संसार की असारता, सोचा है, जल्दी कहो।” कपिल ने कहा-"राजन् ! समय बीत कुतीर्थिकों की अज्ञता, अहिंसा-विवेक, स्त्री-संगम का त्याग चुका है। मुझे जो कुछ पाना था पा लिया है। तुम्हारी सारी वस्तुएं आदि-आदि विषय भी प्रतिपादित हुए हैं। मुझे तृप्त नहीं कर सकीं। किन्तु उनकी अनाकांक्षा ने मेरा मार्ग यह अध्ययन 'ध्रुवक' छन्द में प्रतिबद्ध है। जो छन्द प्रशस्त कर दिया है। जहां लाभ है वहां लोभ है। ज्यों-ज्यों लाभ सर्वप्रथम श्लोक में तथा प्रत्येक श्लोक के अन्त में गाया जाता बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। दो माशा सोने की है, उसे 'ध्रुवक' कहते हैं। वह तीन प्रकार का होता है-छह प्राप्ति के लिए मैं घर से निकला था किन्तु मेरी तृप्ति करोड़ में पदों वाला, चार पदों वाला और दो पदों वालाःभी नहीं हुई। तृष्णा अनन्त है। इसकी पूर्ति वस्तुओं की जं गिज्जइ पुबं विय, पुणो-पुणो सव्वकव्वबंधेसु। उपलब्धियों से नहीं होती, वह होती है त्याग से, अनाकांक्षा से।" घुवयति तमिह तिविहं, छप्पायं चउपयं दुपयं।। राजा ने कहा-“ब्राह्मण ! मेरा वचन पूरा करने का मुझे
(बुहद्वृत्ति, पत्र २८६) अवसर दें। मैं करोड़ मोहरें भी देने के लिए तैयार हूं।” कपिल इस अध्ययन में चार पदों वाले ध्रुवक का प्रयोग हुआ है। ने कहा-“राजन् ! तृष्णा की अग्नि अब शान्त हो गई है। मेरे
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