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उरभ्रीय
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अध्ययन ७:श्लोक २६ टि० ४०
धृति के बिना टिक नहीं सकता। अतः दूसरे अध्ययन ‘सामण्णपुवयं' लिए तप भी निश्चित ही दुर्लभ है। में धृति का प्रतिपादन है। श्रामण्य और तप का मूल धृति है- महाभारत के अनुसार सुख और दुःख में विचलित नहीं
जस्स थिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलभा। होना, सम रहना, धृति है।' धृति दूसरा साथी है। जे अधिइभंतपुरिसा तवोऽपि खलु दुल्लहो तेसिं।
५. सर्वधर्मानुवर्ती-वृत्तिकार ने सर्वधर्म का अर्थ—शान्ति जिसमें धृति होती है, उसके तप होता है। जिसके तप आदि दसविध यतिधर्म किया है। उसका अनुवर्तन करने वाला होता है, उसको सुगति सुलभ है। जो अधृतिमान पुरुष हैं, उनके सर्वधर्मानुवर्ती होता है।
१. महाभारत, शान्तिपर्व १६२।१६ : धृति म सुखे दुःखे यया नाप्नोति
विक्रियाम्। २. वही, वनपर्व २६७।२६ : धुत्या द्वितीयवान् भवति।
३. बृहवृत्ति, पत्र २८५ : सर्व धर्म क्षान्त्यादिरूपमनुवर्तते तदनुकूलाचारतया
स्वीकुरुत इत्येवंशीलो यस्तस्य सर्वधर्मानुवर्तिनः।
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