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उत्तरज्झयणाणि
१४२ अध्ययन ७ : श्लोक २५-२६ टि०३५-४०
प्रस्तुत श्लोक में प्रश्न किया गया है कि जब आयुष्य उनमें प्राथमिकता है धर्म की, फिर अर्थ की और काम का स्थान इतना अल्प है तो मनुष्य किन कारणों से अपने योगक्षेम को है सबसे अन्त में। नहीं जानता? अथवा जानता हुआ भी उसकी उपेक्षा करता है? जो मनुष्य अर्थ का अतिसेवन करता है, वह काम और
योगक्षेम को न जानने के कारण अगले श्लोक (२५) में धर्म का अतिक्रमण करता है। जो काम का अतिसेवन करता है, निर्दिष्ट हैं—(१) कामभोगों से निवृत्त न होना और (२) पार ले वह धर्म और अर्थ का अतिक्रमण करता है। जो धर्म का जाने वाले मार्ग को सुनकर-जानकर भी उसकी उपेक्षा करना। अतिसेवन करता है वह अर्थ और काम का अतिक्रमण करता
गीता में भी योगक्षेम शब्द प्रयुक्त है। वहां उसका अर्थ है। जीवन के लिए धर्म, अर्थ और काम-तीनों आवश्यक हैं, है-अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा।'
पर इनका संतुलित सेवन ही सुखद अवस्था पैदा कर सकता है। ३५. (श्लोक २४)
३७. पार ले जाने वाले मार्ग को (नेयाउयं मग्ग) प्रस्तुत श्लोक के अन्त में वृत्तिकारों ने इस अध्ययन में प्रयुक्त सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र-यही नैर्यात्रिक पांच दृष्टान्तों का निगमन प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है- मार्ग है, मुक्ति-मार्ग है। यही पार ले जाने वाला है।'
१. उरभ्र का दृष्टान्त--भोगों के उपभोग से भविष्य में ३८. पुतिदेह (औदारिक शरीर) का (पूइदेह) होने वाले दोषों का निदर्शक।
शरीर पांच प्रकार के होते हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, २-३. काकिणी और आम्रफल का दृष्टान्त-भविष्य में तैजस और कार्मण। औदारिक शरीर रक्त, मांस, हड्डी आदि से अपाय-बहूल होने पर भी जो अतुच्छ है-प्रचुर है, उसे नहीं यक्त होता है। अतः उसे 'पूतिदेह'-दुर्गन्ध पैदा करने वाला छोड़ा जा सकता-इसका निदर्शक।
शरीर माना गया है। ४. वणिग् का दृष्टान्त-तुच्छ को भी वही छोड़ सकता है ३९. (श्लोक २७) जो लाभ और अलाभ को जानने में कुशल है, जो आय-व्यय को
ऋद्धि-स्वर्ण आदि का समुदय। तोलने में कुशल है-इस तथ्य का निदर्शक दृष्टान्त।।
द्युति-शरीर की कान्ति। ५. समुद्र का दृष्टान्त-आय-व्यय को कैसे तोला जाए,
यश:-पराक्रम से होने वाली प्रसिद्धि । उसका निदर्शक दृष्टान्त । जैसे-दिव्यकामभोग समुद्र के जल के
वर्ण-गांभीर्य आदि गुणों से होने वाली श्लाघा अथवा गौरव । समान है। उसका उपार्जन महान् आय है और अनुपार्जन
सुख-इष्ट विषयों की उपलब्धि से होने वाला आह्लाद । महान् व्यय है।
४०. (श्लोक २८-२९) ३६. कामभोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष का
इन श्लोकों में व्यवहृत कुछ शब्दों के अर्थ(कामाणियट्टस्स)
१. धर्म-अहिंसा, संयम और तप लक्षण वाला आचार। काम-निवृत्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। २. अधर्म-विषयासक्ति, पदार्थासक्ति। सोमदेवसूरि ने त्रिवर्ग के संतुलन पर विमर्श किया है। उनके ३. बाल–अज्ञानी। अनुसार जिससे सब इन्द्रियों से प्रीति होती है, उसका नाम है ४. धीर-धृतिमान् । जिसमें धृति-मन के नियमन की 'काम'। उन्होंने काम-सेवन के विषय में कुछ विकल्प प्रस्तुत शक्ति होती है, वह। किए हैं
वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं-(१) बुद्धिमान और (२) १. काम का सेवन उस सीमा तक हो, जिससे धर्म और कष्टों से अक्षुब्ध रहने वाला। अर्थ की सिद्धि में विरोध न आए।
कवि की प्रसिद्ध उक्ति है-"विकारहेतौ सति विक्रियन्ते २. धर्म, अर्थ और काम का संतुलित सेवन हो। येषां न चेतांसि त एव धीरा:-विकार के हेतु उपस्थित होने पर
३. काम का अतिसेवन शरीर को पीड़ा पहुंचाता है तथा भी जिन मनुष्यों का मन विकारग्रस्त नहीं होता, वे धीर होते हैं। धर्म और अर्थ में बाधा डालता है।
दशवकालिक सूत्र के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरी कहते __४. जहां धर्म, अर्थ और काम का युगपत प्रसंग हो तो हैं-दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन में धर्म का वर्णन है। वह १. गीता, २२
★ धर्मार्थकामानां युगपत् समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान्। २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २८३, २८४ ।
५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ : नयणशीलो नैयायिकः, मग ति (ख) सुखबोधा, पत्र १२२।
दसणचरित्तमइयं। ३. सोमदेव नीतिसूत्राणि, कामसमुद्देश, १ : आभिमानिकरसानुविद्धा यतः ६. सुखबोधा, पत्र १२३ : 'ऋद्धिः' कनकादिसमुदायः, 'द्युतिः' शरीरकान्तिः, सर्वन्द्रियप्रीतिः स कामः।
'यशः' पराक्रमकृता प्रसिद्धिः, 'वर्णः' गांभीर्यादिगुणः श्लाघा गौरवत्वादि सोमदेव नीतिसूत्राणि, कामसमुद्देश, २, ३, ४, १३ :
वा,... 'सूखं' यथेप्सितविषयायाप्ती आहूलादः। * धर्मार्थाविरोधेन काम सेवेत.....।
७. बृहदृवृत्ति, पत्र २८५ : धीः-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः-धीमान् * समं वा त्रिवर्ग सेवेत।
परीषहाद्यक्षोभ्यो वा धीरः । * एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानां आत्मानमितरी च पीडयति।
कामाना आत्मानमितरी च पीडयति। ८. कुमारसंभव, ११५६।
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