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उत्तरज्झयणाणि
१४० अध्ययन ७: श्लोक १७,२० टि०२६-२८
है। कहा भी है---प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनं। व्यापार करने लग गया। तीसरे ने मूल पूंजी को इतना बढ़ाया तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ? जिस व्यक्ति ने कि वह अपने परिवार के साथ आनन्द से रहने लगा।' अपने प्रथम वय में विद्या का अध्ययन नहीं किया, दूसरे वय में सोलहवें श्लोक का निगमन इस प्रकार हैधन नहीं कमाया और तीसरे वय में तपस्या नहीं की, साधना तीन संसारी प्राणी मनुष्य योनि में जन्मे। उनमें से एक नहीं की, वह भला अंतिम वय में क्या कर पाएगा? यह व्यक्ति संयम, आर्जव, मार्दव आदि गुणों से समन्वित होकर, सोचकर वह धन के उपार्जन में लगा। सादगीमय जीवन जीने सामान्य आरम्भ और परिग्रह से जीवन यापन करने लगा। वह का लक्ष्य बनाया और द्यूत आदि व्यसनों से दूर रहकर व्यापार मर कर पुनः मनुष्यभव में आया। यह मूल की सुरक्षा है। दूसरा में एकनिष्ठ हो गया। व्यापार चला और उसके विपुल लाभ सम्यक्-दर्शन और चारित्रिक गुणों से युक्त होकर, सरागसंयम हुआ।
का पालन कर देवलोक में गया। उसने मूल पूंजी को बढ़ाया। दूसरे लड़के ने सोचा-'हमारे घर में धन की कमी नहीं तीसरे ने अपना जीवन हिंसा आदि में व्यतीत कर, मर कर है। प्रचुर धन है हमारे पास, किन्तु बिना कुछ नया उपार्जित नरक योनि या तिर्यञ्च योनि में जन्मा। यह मूल पूंजी को हार किए, वह धन भी कभी न कभी पूरा हो जाएगा। इसलिए मुझे जाने की बात है। मूलधन की सुरक्षा करनी चाहिए। वह व्यापार करने लगा। जो २६. वष-हेतुक (वहालिया) लाभ प्राप्त होता, उसको भोजन आदि में खर्च कर देता। बचाता चूर्णि के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'व्यधमूलिका' और कुछ भी नहीं।
वृत्ति के अनुसार 'वधमूलिका' है। व्यध का अर्थ प्रमारण या तीसरे लड़के ने सोचा-विचित्र है कि हमारे घर में सात ताडन और 'वध' का अर्थ प्राणिघात, विनाश या ताड़न किया गया है। पीढ़ी तक खर्च करने जितना धन है। परन्तु पिताजी वृद्ध हैं। २७. लोलप और वंचक पुरुष (लोलयासढे) उनमें सोचने का शाक्त नहा है। धन का न्यूनता नहा जाए यहां 'लोलया' शब्द चिन्तनीय है। यह पुरुष का विशेषण इसलिए उन्होंने हमें परदेश भेजा है। यह ठीक ही कहा है- हो तो इसका रूप 'लोलए' होना चाहिए। 'लोलए सढे' का अर्थ
पंचासा वोलीणा, छट्ठाणा नणं जति पुरिसस्स। 'लोलपता से शठ' हो तो उक्त पाठ हो सकता है किन्तु यह अर्थ रूवाणा ववसायो, हिरि सत्तोदारया चेव।। मान्य नहीं रहा है। वृत्तिकार ने 'लोलया' पाठ की संगति इस
जब व्यक्ति पचास वर्ष की अवस्था को पार कर जाता है प्रकार की है—जो मनुष्य मांस आदि में अत्यन्त लोलय होता है, तब उसमें छह कमियां आती हैं--(१) रूप की कमी (२) आज्ञा वह उसी में तन्मय हो जाता है। उसी तन्मयता को प्रगट करने देने की अक्षमता (३) व्यवसाय करने की निपुणता में कमी (४) के लिए यहां लोल (लोलुप) को भी लोलता (लोलुपता) कहा गया लज्जाहीनता (५) शक्ति की न्यूनता और (६) उदारता की कमी। है। या से आ को अलाक्षणिक माना जाए तो लोलय का लोलक
मैं क्यों धन कमाने के क्लेश में पडूं? उसने यह सोच बनता है—लोलक अर्थात् लोलुप। कर व्यापार नहीं किया और केवल द्यूत, मद्य, मांस आदि के शट का अर्थ है-आलसी या विश्वस्त व्यक्तियों को ठगने सेवन में लगा रहा। कुछ ही दिनों में मूल पूंजी खर्च हो गई। वाला। मांसाहार नरकगति और वंचना तिर्यक्गति में उत्पन्न
काल की अवधि पूरी हुई। तीनों अपने नगर लौटे। जिस होने हेतु हैं। इसलिए इस श्लोक में 'लोलय' और 'शट' का पुत्र ने अपनी मूल पूंजी गंवा डाली थी, पिता ने उसे अपने ही प्रयोग सापेक्ष है। घर में नौकर की तरह रहने के लिए बाध्य किया। जिसने मूल २८. (श्लोक २०) पूंजी की सुरक्षा की थी, उसे घर का काम-काज सौंपा और इस श्लोक में विमात्रशिक्षा, गृहिसुव्रत और कर्मसत्य–ये जिसने पूंजी को बढ़ाया था उसे घर का स्वामी नियुक्त किया। तीन शब्द विशेष अर्थवान् हैं। इसी कथा का दूसरा कोण इस प्रकार है
चूर्णि में शिक्षा का अर्थ शास्त्र-कला का कौशल है। तीनों व्यापार करने लगे। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा शान्त्याचार्य ने शिक्षा का अर्थ-प्रकृतिभद्रता आदि गुणों का डाली, वह आगे व्यापार करने में असमर्थ रहा। उसने फिर अभ्यास किया है। प्रस्तुत प्रकरण में यह अर्थ अधिक उपयुक्त है। नौकरी प्रारंभ की। दूसरे ने मूल पूंजी की सुरक्षा की तो वह पुनः चूर्णि में सुव्रत का अर्थ 'ब्रह्मचरणशील' है। शान्त्याचार्य ने
सेवन मी
अवधि पूरी हुई।
पिता ने उसे
१. सुखबोधा, पत्र ११६, १२०। २. वही, पत्र १२०। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६४।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २८०।
(ग) सुखबोधा, पत्र १२०। ४. बृहवृत्ति, पत्र २८० : 'लोलायासढे' त्ति लोलया-पिशितादिलाम्पट्यं
तद्योगाज्जुन्तुरपि तन्मयत्वख्यापनार्थ लोलतेत्युक्तः ।
५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६४ : न धर्मचरणोधमवान्।
(ख) बृहवृत्ति, पत्र २८०: शाठ्ययोगाच्छठः विश्वस्तजनवंचकः । ६. ठाणं, ४।६२८, ६२६। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : शिक्षानाम शास्त्रकलासु कौशल्यम्। ८. बृहवृत्ति, पत्र २८१ : "शिक्षाभिः' प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासरूपाभिः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : ब्रह्मचरणशीला सुव्रताः ।
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