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टिप्पण :
अध्ययन ७: उरभ्रीय
१. पाहुने के (आएस)
रोगी अन्तकाल में पथ्य या अपथ्य जो कुछ मांगता है, वह सब चूर्णि के अनुसार 'आएस' के संस्कृत रूप दो होते हैं- उसे दे दिया जाता है। वत्स! सूखे तिनकों से जीवन चलाना आदेश और आवेश।' इसका अर्थ है-पाहुना।
दीर्घायु का लक्षण है।" २. मूंग, उड़द आदि (जवस)
इसकी तुलना मुनिक जातक (नं ३०) के श्लोक से होती चूर्णिकार और टीकाकारों ने इसका अर्थ 'मूंग, उड़द हैआदि धान्य' किया है। शब्दकोश में इसका अर्थ-तृण, घास
मा मुनिकस पिहपि, आतुरन्नानि भुजति। तथा गेहूं आदि धान्य किया गया है।
अप्पोसुक्को मुसं खाद, एतं दीघायुलक्खणं। डॉ० हरमन जेकोबी ने इस शब्द पर टिप्पणी देते हुए ५. विशाल देहवाला होकर पाने की आकांक्षा लिखा है कि भारतवर्ष में धान्य कणों द्वारा पोषित भेड़ का मांस करता है। (विठले देहे आएसं परिकंखए) अच्छा गिना जाता है।
चूर्णिकार ने विशाल देह का अर्थ-मांस से उपचित शरीर ३. अपने आंगन में (सयंगणे)
किया है। प्रश्न होता है कि मरना कोई नहीं चाहता, फिर पाहुने इसका अर्थ है-अपने घर के आंगन में चूर्णिकार ने की आकांक्षा करना कैसे संभव हो सकता है? मूल में तथा शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'विसयंगणे' मानकर चूर्णिकार ने समाधान की भाषा में कहा है-मांस के 'विसय' का अर्थ 'गृह' और 'आंगण' का अर्थ 'आंगन' किया है। अत्यधिक उपचित हो जाने के कारण शरीर स्वयं मेद से फटने विषयांगण अर्थात् गृहांगण। इसका दूसरा अर्थ-इन्द्रियों के विषयों जैसी स्थिति में हो जाता है। इस तथ्य को रूपक की भाषा में की गणना करता हुआ-चिन्तन करता हुआ—किया गया है। 'आकांक्षा करता है' निरूपित किया है। ४. (श्लोक १)
६. बेचारा (दुही) चूर्णिकार और टीकाकार ने यहां एक कथा प्रस्तुत की है। सूत्रकार ने उस उपचित मेमने को दुःखी बताया है। प्रश्न कथा के प्रसंग में नियुक्ति की एक गाथा है
होता है कि समस्त सुखोपभोग करते हुए भी वह दुःखी क्यों है ? आउरचिन्नाई एयाई, जाइं चरइ नंदिओ। चूर्णिकार और नेमिचन्द्र इसका समाधान इन शब्दों में देते हैं कि सुक्कत्तणेहि लाढाहि, एवं दीहाउलक्षणम्।। जिस प्रकार मारे जाने वाले मनुष्य या पशु को अलंकृत करना
गाय ने अपने बछड़े से कहा-“वत्स ! यह नंदिक- तत्त्वतः उसे दुःखी करना ही है। वैसे ही मेमने को खिलाए जाने मेमना जो खा रहा है, वह आतुर (मरणासन्न) का चिन्ह है। वाले ओदन आदि तत्त्वतः दुःख देने वाले हैं।" १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ आएस जाणतित्ति आइसो, ओवेसो वा,
गृहांगनमित्यर्थः, अथवा विषया रसादयः तान् गणयन–प्रीणितोऽस्य आविशति वा वेश्मनि, तत्र आविशति वा गत्वा इत्याएसा।
मांसेन विषयान् भोक्ष्यामीति, अथवा विषयान् इति। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : आदिश्यते-आज्ञाप्यते विविधव्यापारेषु (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : यदि वा 'पोसेज्जा विसयंगणे' त्ति विशन्त्यस्मिन् परिजनोऽस्मिन्नायात इत्यादेशः-अभ्यर्हितः प्राहुणकः ।
विषयो-गृहं तस्यांगणं विषयांगणं तस्मिन् अथवा विषयं-रसलक्षणं ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ : जवसो मुग्गमासादि।
वचनव्यत्यया विषयान्वा गणयन-संप्रधारयन् धर्मनिरपेक्ष इति (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : 'यवसं' मुद्गमाषादि।
भावः। (ग) सुखबोधा, पत्र ११६ ।
८. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २४६ । ४. (क) पाइयसद्दमहण्णवो, पृ०४३६।
६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५९ : विपुलदेहे नाम मांसोपचितः । (ख) अभिधान चिन्तामणि, ४२६१।
१०. वही, पृ० १५६ : मांसोपचयादसी स्वयमेव मेदसा स्फुटन्निव आएस Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, p. 27. परिकंखए, कथं सो आगच्छेदिति। Fool-no1 3. Mutton of gramfed sheep is greatly appreciated in ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : कहं दुही जवसोदनेऽपि दीयमाने ?, India.
उच्यते, वधस्य वध्यमाने इष्टाहारे वा वध्यालंकारेण वाऽलक्रियमाणस्स ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : 'स्वकाङ्गणे' स्वकीयगृहाङ्गणे।
किमिव सुखं ?, एवमसी जवसोदगादिसुखेऽपि सति दुःखमानेव। ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ : जो जस्स विसाति स तस्स विसयो
(ख) सुखबोधा, पत्र ११७ : 'दुहि' त्ति वध्यमण्डनमिवाऽस्यौदनदानादीनि भवति, यथा राज्ञो विषयः, एवं यद्यस्य विषयो भवति, लोकेऽपि
तत्वतो दुःखमेव तदस्यास्तीति दुःखी। वक्तारो भवन्ति सर्वोह्यात्मगृहे राजा, अंगं ति तस्मिन्निति अंगनं,
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