________________
आमुख
इस अध्ययन का नामकरण इसके प्रारम्भ में प्रतिपादित आतुर-लक्षण है। आतुर (मरणासन्न) प्राणी को पथ्य और 'उरभ्र' के दृष्टान्त के आधार पर हुआ है।
अपथ्य जो कुछ वह चाहता है, दिया जाता है। सूखी घास खाकर समवायांग (समवाय ३६) तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में जीना दीर्घायु का लक्षण है। इस मेंढ़े का मरण-काल सन्निकट इसका नाम 'उरभिज्जं' है। किन्तु अनुयोगद्वार (सूत्र ३२२) में है।" इसका नाम 'एलइज्ज' है। मूल पाठ (श्लोक १) में 'एलयं' शब्द कुछ दिन बीते। सेठ के घर मेहमान आए। बछड़े के का ही प्रयोग हुआ है। 'उरभ्र' का नहीं। उरभ्र और एलक- देखते-देखते मोटे-ताजे मेंढ़े के गले पर छुरी चली और उसका ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, इसलिए ये दोनों नाम प्रचलित रहे हैं। मांस पकाकर मेहमानों को परोसा गया। बछड़े का दिल भय से
श्रामण्य का आधार अनासक्ति है। जो विषय-वासना में भर गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। मां ने कारण पूछा। आसक्त होता है, वह कभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। बछड़े ने कहा-'मां! जिस प्रकार मेंढा मारा गया क्या मैं भी विषयानुगृद्धि में रसासक्ति का भी प्रमुख स्थान है। जो रसनेन्द्रिय मारा जाऊंगा?' मां ने कहा-"वत्स ! यह भय वृथा है। जो पर विजय पा लेता है, वह अन्यान्य विषयों को भी सहजतया रस-गृद्ध होता है, उसे उसका फल भी भोगना पड़ता है। तू वश में कर लेता है। इस कथन को सूत्रकार ने दृष्टान्त से सूखी घास चरता है, अतः तुझे ऐसा कटु विपाक नहीं सहना समझाया है। प्रथम चार श्लोकों में दृष्टान्त के संकेत दिए गए पडेगा।" हैं। टीकाकार ने 'सम्प्रदायादवसेयम्' ऐसा उल्लेख कर उसका इसी प्रकार हिंसक, अज्ञ, मृषावादी, मार्ग में लूटने वाला, विस्तार किया है:
चोर, मायावी, चुराने की कल्पना में व्यस्त, शठ, स्त्री और एक सेठ था। उसके पास एक गाय, गाय का बछड़ा और विषयों में गृद्ध, महाआरम्भ और महापरिग्रह वाला, सुरा और एक मेंढा था। वह मेंढे को खूब खिलाता-पिलाता। उसे प्रतिदिन मांस का उपभोग करने वाला, दूसरों का दमन करने वाला, स्नान कराता, शरीर पर हल्दी आदि का लेप करता। सेठ के कर-कर शब्द करते हुए बकरे के मांस को खाने वाला, तोंद पुत्र उससे नाना प्रकार की क्रीड़ा करते। कुछ ही दिनों में वह वाला और उपचित रक्त वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के स्थूल हो गया। बछड़ा प्रतिदिन यह देखता और मन ही मन आयुष्य की आकांक्षा करता है जिस प्रकार मेमना पाहुने की। सोचता कि मेंढे का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है ? सेठ (श्लोक ५-७) का हम पर इतना प्यार क्यों नहीं है? मेंढ़े को खाने के लिए भगवान् महावीर ने कहा-“अल्प के लिए बहुत को मत जौ देता है और हमें सूखी घास। यह अन्तर क्यों ? इन विचारों खोओ। जो ऐसा करता है, वह पीछे पश्चात्ताप करता है।" इसी से उसका मन उदास हो गया। उसने स्तन-पान करना छोड़ भावना को सूत्रकार ने दो दृष्टान्तों से समझाया है : दिया। उसकी मां ने इसका कारण पूछा। उसने कहा-'मां ! यह (१) एक दमक था। उसने भीख मांग-मांग कर एक हजार मेंढा पुत्र की तरह लालित-पालित होता है। इसे बढ़िया भोजन कार्षापण एकत्रित किए। एक बार वह उन्हें साथ ले एक सार्थवाह दिया जाता है। विशेष अलंकारों से इसे अलंकृत किया जाता है। के साथ अपने घर की ओर चला। रास्ते में भोजन के लिए
और एक मैं हूं मन्द-भाग्य कि कोई भी मेरी परवाह नहीं उसने एक कार्षापण को काकिणियों में बदलाया और प्रतिदिन करता। सूखी घास चरता हूं और वह भी भरपेट नहीं मिलती। कुछ काकिणियों को खर्च कर भोजन लेता रहा। कई दिन बीते। समय पर पानी भी नहीं मिलता। कोई मेरा लालन-पालन नहीं उसके पास एक काकिणी शेष बची। उसे वह एक स्थान पर भूल करता। ऐसा क्यों है मां ?'
आया। कुछ दूर जाने पर उसे वह काकिणी याद आ गई। अपने मां ने कहा
पास के कार्षापणों की नौली को एक स्थान पर गाड़ उसे लाने आउरचिन्नाइं एयाई, जाइं चरइ नंदिओ। दौड़ा। परन्तु वह काकिणी किसी दूसरे के हाथों पड़ गई। उसे सुक्कत्तणेहिं लाढाहि, एयं दीहाउलक्खणं।। बिना प्राप्त किए लौटा तब तक एक व्यक्ति उस नौली को लेकर
(उत्त०नि०गा० २४६) भाग गया। वह लुट गया। ज्यों-त्यों वह घर पहुंचा और "वत्स ! तू नहीं जानता। मेंढा जो कुछ खा रहा है, वह पश्चात्ताप में डूब गया।
१. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४६ :
उरभाउणामगोयं, वेयतो भावओ उ ओरभो। तत्तो समुट्ठियमिणं, उरम्भिज्जन्ति अज्झयणं ।।
२. बृहवृत्ति, पत्र २७२-२७४। ३. वही, पत्र २७६।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org