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उरनीय
८.
आसणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुजिया । दुस्साहढं धणं हिच्या बहुं संचिणिया रयं ।।
६. तओ कम्मगुरू जंतू पच्चुष्पन्नपरायणे । अय व्व आगयाएसे मरणंतमि सोयई । १०. तओ आउपरिक्खीणे चुया देहा विहिंसगा । आसुरियं दिसं बाला गच्छंति अवसा तमं ।। ११. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो । अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए ।।
१२. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अंतिए । सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिव्विया ।।
१३. अणेगवासानउया जा सा पन्नवओ ठिई। जाणि जीयंति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए । । १४. जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेत्तूण निग्गया । एगो ऽत्य लहई लाह एगो मूलेण आगओ ।। १५. एगो मूलं पि हारिता
आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह ।। १६. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्त्तणं सुवं ॥
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आसनं शयनं यानं वित्तं कामांश्च भुक्त्वा । दुःसंहृतं धनं हित्वा बहु संचित्य रजः ।। ततः कर्मगुरुर्जन्तुः
प्रत्युत्पन्नपरायणः । अज इव आगते आवेशं मरणान्ते शोचति ॥
तत आयुषि परिक्षीणे च्युताः देहाद् विहिंसकाः । आसुरीयां दिशं बालाः गच्छन्ति अवशाः तमः ।। यथा काकिण्या हेतो: सहस्रं हारयेन्नरः । अपथ्यमाम्रकं भुक्त्वा राजा राज्यं तु हारयेत् ।।
एवं मानुष्यकाः कामाः देवकामानामन्तिके । सहस्रं गुणिता भूयः आयुः कामाश्च दिव्यकाः ।।
अनेकवर्ष- नयुतानि या सा प्रज्ञावतः स्थितिः । यानि जीयन्ते दुर्मेधसा ऊने वर्षशतायुषि ।। यथा च त्रयो वणिजः मूलं गृहीत्वा निर्गताः । एकोऽत्र लभते लाभम् एको मुलेनागतः ।।
एको मूलमपि हारयित्वा आगतस्तत्र वाणिजः । व्यवहारे उपमेषा एवं धर्मे विजानीत ।। मानुषत्वं भवेन्मूलं लाभो देवगतिर्भवेत् । मूलच्छेदेन जीवानां नरकतिर्यक्त्वं ध्रुवम् ।।
अध्ययन ७ : श्लोक ८-१६
आसन, शय्या, यान, धन और काम-विषयों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किये हुए" धन को द्यूत आदि के द्वारा गंवाकर", बहुत कर्मों को संचित कर
कर्मों से भारी बना हुआ, केवल वर्तमान को ही देखने वाला जीव मरणान्तकाल में उसी प्रकार शोक करता है जिस प्रकार पाहुने के आने पर मेमना । "
फिर आयु क्षीण होने पर वे नाना प्रकार की हिंसा करने वाले कर्मवशवर्ती अज्ञानी जीव देह से च्युत होकर अन्धकारपूर्ण आसुरीय दिशा (नरक) की ओर जाते हैं।
जैसे कोई मनुष्य काकिनी के लिए हजार (कार्षापण) - गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है, वैसे ही जो व्यक्ति मानवीय भोगों में आसक्त होता है, वह देवी भोगों को हार जाता है । २१
दैवी भोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग उतने ही नगण्य हैं जितने कि हजार कार्षापणों की 'तुलना में एक काकिणी और राज्य की तुलना में एक आम । दिव्य आयु और दिव्य काम भोग मनुष्य की आयु और काम-भोगों से हजार गुना अधिक हैं ।
प्रज्ञावान् पुरूष की देवलोक में अनेक वर्ष नयुत ( असंख्यकाल) की स्थिति होती है—यह ज्ञात होने पर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए उन दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है।
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जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है,
और एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए।
मनुष्यत्व मूलधन है । देवगति लाभ रूप है। मूल के नाश से जीव निश्चित ही नरक और तिर्यञ्च गति में जाते हैं।
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