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उरथ्रीय
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अध्ययन ७: आमुख
(२) एक राजा था। वह आम बहुत खाता था। उसे आम व्यापार करो और अमुक समय के बाद अपनी-अपनी पूंजी ले का अजीर्ण हुआ। वैद्य आए। चिकित्सा की। वह स्वस्थ हो गया। मेरे पास आओ।” पिता का आदेश पा तीनों पुत्र व्यापार के लिए वैद्यों ने कहा-"राजन् ! यदि तुम पुनः आम खाओगे तो जीवित निकले। वे एक नगर में पहुंचे और तीनों अलग-अलग स्थानों नहीं बचोगे।" उसने अपने राज्य के सारे आम्र के वृक्ष उखड़वा पर ठहरे। एक पुत्र ने व्यापार आरम्भ किया। वह सादगी से दिए। एक बार वह अपने मंत्री के साथ अश्व-क्रीड़ा के लिए रहता और भोजन आदि पर कम खर्च कर धन एकत्रित करता। निकला। अश्व बहुत दूर निकल गया। वह थक कर एक स्थान इससे उसके पास बहुत धन एकत्रित हो गया। दूसरे पुत्र ने भी पर रुका। वहां आम के बहुत वृक्ष थे। मंत्री के निषेध करने पर व्यापार आरम्भ किया। जो लाभ होता उसको वह भोजन, वस्त्र, भी राजा एक आम्र वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए बैठा। मकान आदि में खर्च कर देता। इससे वह धन एकत्रित न कर वहां अनेक फल गिरे पड़े थे। राजा ने उन्हें छुआ और सूंघा तथा सका। तीसरे पुत्र ने व्यापार नहीं किया। उसने अपने शरीर-पोषण खाने की इच्छा व्यक्त की। मंत्री ने निषेध किया पर राजा नहीं और व्यसनों में सारा धन गंवा डाला। माना। उसने भरपेट आम खाए। उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तीनों पुत्र यथासमय घर पहुंचे। पिता ने सारा वृत्तान्त
इसी प्रकार जो मनुष्य मानवीय काम-भोगों में आसक्त पूछा। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा डाली थी, उसे नौकर के हो, थोड़े से सुख के लिए मनुष्य-जन्म गंवा देता है वह शाश्वत स्थान पर नियुक्त किया, जिसने मूल की सुरक्षा की थी, उसे गृह सुखों को हार जाता है। देवताओं के काम-भोगों के समक्ष मनुष्य का काम-काज सौंपा और जिसने मूल को बढ़ाया था, उसे के काम-भोग तुच्छ और अल्पकालीन हैं। दोनों के काम-भोगों गृहस्वामी बना डाला। में आकाश-पाताल का अन्तर है। मनुष्य के काम-भोग कुश के मुनष्य-भव मूल पूंजी है। देवगति उसका लाभ है और अग्रभाग पर टिके जल-बिन्दु के समान है और देवताओं के नरकगति उसका छेदन है। काम-भोग समुद्र के अपरिमेय जल के समान है। (श्लोक २३)। इस अध्ययन में पांच दृष्टान्तों का निरूपण हुआ है।' अतः मानवीय काम-भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए। उनका प्रतिपाद्य भिन्न-भिन्न है। पहला (उरभ्र) दृष्टान्त विषय-भोगों
जो मनुष्य है और अगले जन्म में भी मनुष्य हो जाता है, के कटु-विपाक का दर्शन है (श्लोक १ से लेकर १० तक)। दूसरे वह मूल पूंजी की सुरक्षा है। जो मनुष्य-जन्म में अध्यात्म का और तीसरे (काकिणी और आम्रफल) दृष्टान्तों का विषय देव-भोगों आचरण कर आत्मा को पवित्र बनाता जाता है, वह मूल को के सामने मानवीय-भोगों की तुच्छता का दर्शन है। (श्लोक ११ बढ़ाता है। जो विषय-वासना में फंसकर मनुष्य जीवन को हार से लेकर १३ तक)। चौथे (व्यवहार) दृष्टान्त का विषय आय-व्यय देता है--तिर्यंच या नरक में चला जाता है—वह मूल को भी के विषय में कुशलता का दर्शन है। (श्लोक १४ से २२ तक)। गंवा देता है (श्लोक १५)। इस आशय को सूत्रकार ने निम्न- पांचवें (सागर) दृष्टान्त का विषय आय-व्यय की तुलना का दर्शन व्यावहारिक दृष्टान्त से समझाया है:
है (श्लोक २३ से २४ तक)। एक बनिया था। उसके तीन पुत्र थे। उसने तीनों को इस प्रकार इस अध्ययन में दृष्टान्त शैली से गहन तत्त्व एक-एक हजार कार्षापण देते हुए कहा-“इनसे तुम तीनों की बड़ी सरस अभिव्यक्ति हुई है।
१. बृहदृवृत्ति, पत्र २७७। २. वही, पत्र २७८, २७६।
३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४७ :
ओरउभे अ कागिणी, अंबए अ वबहार सागरे घेव। पंचेए दिट्टता, उरभिजमि अज्झयणे।।
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