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क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय
१२७ अध्ययन ६ : श्लोक १४-१६ टि० २६-३२ इसका उत्तर अगले दो चरणों में दिया गया है। ३०. (सन्निहिं च कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए) २६. (पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे)
सन्निधि का अर्थ है—अशन आदि को स्थापित करके प्रस्तुत दो चरणों में शरीर के धारण और पोषण करने का रखना, दूसरे दिन के लिए संग्रह करना। सटीक उत्तर है। शरीर को धारण करने का और उसको उचित निशीथ चूर्णि में थोड़े समय के बाद विकृत हो जाने वाले आहार से पुष्ट रखने का एकमात्र उद्देश्य है कि पूर्वसंचित कर्मों दूध, दही आदि के संग्रह को सन्निधि और चिरकाल तक न का क्षय किया जा सके और संयम की पालना से नए कर्मों को बिगड़ने वाले घी, तेल आदि के संग्रह को संचय कहा है।० रोका जा सके। शरीर-धारण का यह आध्यात्मिक अथवा परमार्थिक लेप मात्र का अर्थ है-जितनी वस्तु से पात्र पर लेप लगे हेतु है।
उतनी मात्रा। मात्रा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं२७. कर्म के हेतुओं (कम्मणो हेउ)
ईषदर्थ क्रियायोगे, मर्यादायां परिच्छदे। चूर्णिकार ने अविद्या और राग-द्वेष को कर्मबंध का हेतु परिमाणे घने चेति, मात्रा शब्दः प्रकीर्तितः।। माना है।' वृत्ति के अनुसार कर्मबंध के उपादान हेतु हैं- यहां मात्रा शब्द परिमाण के अर्थ में है।" शान्त्याचार्य ने मिथ्यात्व और अविरति।
इसे मर्यादा के अर्थ में भी माना है। उनके अनुसार इसका अर्थ २८. मृत्यु की प्रतीक्षा (कालकंखी)
होगा—मुनि अपने काष्ट पात्र पर गाढ़े तेल या रोगन आदि का चर्णिकार ने इसका अर्थ-पण्डित-मरण के काल की लेप लगाए। उसके अतिरिक्त किसी प्रकार की सन्निधि न आकांक्षा करने वाला अर्थात आजीवन संयम की इच्छा करने रखें। वाला--किया है।
३१. (पक्खी पत्तं समादाय रिवेक्खो परिव्वए) शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ क्रियोचित काल यहां ‘पत्त' शब्द में श्लेष है। इसके दो अर्थ होते हैं--पत्र की आकांक्षा करने वाले किया है। 'कालकंखी परिव्वए'—ये दो (पंख) और भिक्षा-पात्र। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-जैसे शब्द आचारांग १३३८ में ज्यों-के-त्यों आए हैं।
पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ता है, इसलिए उसे पीछे की २९. आहार और पानी की (पिंडस्स पाणस्स) कोई अपेक्षा चिन्ता नहीं होती, वैसे ही भिक्षु अपने पात्र आदि
इस श्लोक में केवल दो शब्द-पिण्ड और पान आये हैं। उपकरणों को जहां जाए वहां साथ ले जाए, संग्रह करके कहीं अन्यत्र अनेक स्थानों पर-असणं, पाणं. खाइम, साइम-ऐसे रखे नहीं अर्थात पीछे की चिन्ता से मक्त होकर निरपेक्ष टोकर चार शब्द आते हैं। चूर्णिकार ने पिण्ड शब्द को अशन, खाद्य विहार करे।
और स्वाद्य-इन तीनों का सूचक माना है।' मुनि खाद्य और वृत्तिकारों ने इसका तात्पर्यार्थ किया है कि संयमोपकारी स्वाद्य का प्रायः उपभोग नहीं करते, ऐसा वृत्तिकारों का अभिमत पात्र आदि उपकरणों की सन्निधि करने में दोष नहीं है।" है। अभयदेव सूरि ने भी स्थानांग वृत्ति में ऐसा मत प्रकट किया शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक अर्थ में 'पत्त' को पात्र मानकर है। चौदह प्रकार के दान जो बतलाये हैं उनमें खाद्य, स्वाद्य भी व्याख्या की है। हमारा अनुवाद इसी पर आधारित है।" सम्मिलित हैं। इन दोनों प्रकारों के उल्लेखों से यही जान पड़ता ३२. लज्जावान् मुनि (लज्ज) है कि इनका ऐकान्तिक निषेध नहीं है।
चूर्णि में इसका अर्थ लज्जावान् है। वृत्तिकार ने इसे
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६८ : कम्मणो-ज्ञानावरणादेः, हेतु-उपादान कारणं
मिथ्यात्वाविरत्यादि। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ : कालनाम यावदायुषः तं पंडितमरणकालं
काक्षमाणः। ४. (क) बृहवृत्ति, पत्र १६८, १६६ : कालं अनुष्ठानप्रस्तावं काश्त
इत्येवंशीलः कालकांक्षी। (ख) सुखबोधा, पत्र ११४ । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ : पिण्डग्रहणात् त्रिविध आहारः। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : 'पिण्डस्य' ओदनादेरन्नस्य 'पानस्य च'
आयामादेः, खायस्वाद्यानुपादानं च यतेः प्रायस्तत्परिभोगासम्भवात्। (ख) सुखबोधा, पत्र ११५ । ठाणं ६३ : णो पाणभोयणस्स....., वृत्ति, पत्र ४२२ : खाद्यस्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वात्पानभोजनयोर्ग्रहणमिति।
उपासकदसा २ : असणपाणखाइमसाइमेणं....पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६:
सन्निधिः-प्रातरिद भविष्यतीत्याद्यभिसन्धितोऽतिरिक्ताशनादिस्थापनम् । १०. निशीथ चूर्णि, उद्देशक ८, सूत्र १८ । ११. सुखबोधा, पत्र ११४ : लेपमात्रया' यावतापात्रमुपलिप्यते तावत्परिमाणमपि । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : लेपः-शकटाक्षादिनिष्पादितः पात्रगतः परिगृह्यते,
तस्य मात्रा-मर्यादा, मात्राशब्दस्य मर्यादावाचित्वेनापि रूढत्वात्... लेपमात्रतया, किमुक्तं भवति?-लेपमेकं मर्यादीकत्य न स्वल्पमप्यन्यत्
सन्निदधीत। १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : यथाऽसी पक्षी तं पत्रभारं समादाय
गच्छति एवमुपकरणं भिक्षुरादाय णिरवेक्खी परिव्यए। १४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : तथा च प्रतिदिनमसंयमपलिमन्थभीरुतया
पात्रायुपकरणसन्निधिकरणेऽपि न दोषः । (ख) सुखबोथा, पत्र ११५ । १५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पक्षीव निरपेक्षः, पात्रं पतद्ग्रहादिभाजनमर्थात्तन्निर्योग
च समादाय व्रजेद्-भिक्षार्थं पर्यटेद्, इदमुक्तं भवति-मधुकरवृत्या हि
तस्य निर्वहणं, तत्किं तस्य सन्निथिना? १६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ ।
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