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क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय
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अध्ययन ६ : श्लोक ७-८ टि० १४-१५ पियायया प्रथमा का बहुवचन है और पियायए द्वितीया का जुगुप्सा करने वाला । तात्पर्यार्थ में 'दोगुंछी' का अर्थ है—अहिंसक, बहुवचन। इस प्रकार घूम-फिर कर हम फिर 'पियायय' के करुणाशील । जो संयमी होता है उसमें ये दोनों गुण होते हैं। प्रियात्मक अर्थ पर ही आ पहुंचते हैं।
१७. अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत्त (अप्पणो पाए दिन्न) १४. (श्लोक ६)
चूर्णिकार ने कहा है-संयमी-जीवन के निर्वाह के लिए प्रस्तुत श्लोक में हिंसा से उपरत रहने का निर्देश दिया पात्र आवश्यक है। वह परिग्रह नहीं है।' मुनि अपने पात्र में गया है। उसके मुख्य हेतु हैं
भोजन करे, गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे। इसके समर्थन १. जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को में शान्त्याचार्य ने “पच्छाकम्मं पुरेकम्मं" (दशवैकालिक ६।५२) सुख प्रिय है।
श्लोक उद्धृत किया है। उन्होंने इस उद्धरण के पूर्व 'शय्यम्भवाचार्य' २. जैसे मुझे अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही सभी का उल्लेख किया है।
प्राणियों को अपना-अपना जीवन प्रिय है। _ 'पाए दिन्नं'-मिलाइए-बौद्धों का छट्ठा धुतांग 'पात्रदशवकालिक ६/१० में कहा है-'सब्वे जीवा वि इच्छंति पिंडिकांग'। (विशुद्धि मार्ग १२, पृ०६०) जीविउं न मरिज्जिउं'-सब प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई १८. तत्त्व को (आयरियं) नहीं चाहता। इसलिए किसी को किसी प्राणी को मारने का अधि
चूर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'आचरितं' और शान्त्याचार्य कार नहीं है।
ने 'आर्यम्' किया है। नेमिचन्द्र ने 'आयारियं' पाठ मानकर हिंसा करने के अनेक कारण हैं। उनमें ये दो कारण और इसका संस्कृत रूप 'आचारिकम्' किया है। आचारित का अर्थ
आचार", आर्य का अर्थ तत्त्व और आचारिक का अर्थ १. व्यक्ति भय के कारण हिंसा करता है।
अपने-अपने आचार में होने वाला अनुष्ठान है। २. व्यक्ति वैर के वशीभूत होकर प्रतिशोध की भावना से डॉ० हरमन जेकोबी ने पूर्व व्याख्याओं को अमान्य किया हिंसा में प्रवृत होता है।
है। वे इसका अर्थ 'आचार्य' करते हैं। अहिंसा की अराधना के लिए हिंसा के सभी कारणों से आयरिय' के संस्कत रूप आचरित और आचार्य दोनों निवृत्त होना होता है।
हो सकते हैं, इसलिए आचरित को अमान्य करने का कोई १५. परिग्रह नरक है (आयाणं नरयं)
कारण प्राप्त नहीं है। किन्तु इस श्लोक में ऐकान्तिक ज्ञानवाद का आदान का अर्थ है-परिग्रह । वह नरक का हेतु है, इसलिए निरसन है। सांख्य आदि तत्त्वज्ञता, भेदज्ञान या विवेकज्ञान से कारण में कार्य का उपचार कर परिग्रह को नरक कह दिया गया मोक्ष मानते हैं। उनकी सुप्रसिद्ध उक्ति है-- है। इसका दूसरा अर्थ यह किया जा सकता है-अदत्त का पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तात्रमे रतः। आदान नरक है।' आयारों में हिंसा को नरक कहा है।
शिखी मुण्डी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः।। १६. अहिंसक या करुणाशील मुनि (दोगुंछी)
'आर्य' का अर्थ तत्त्व भी है इसलिए प्रकरण की दृष्टि चूर्णिकार के अनुसार जुगुप्सा का अर्थ 'संयम' है। जो से शान्त्याचार्य की व्याख्या अनुपयुक्त नहीं है। वे 'आयरित' असंयम से जुगुप्सा करता है वह जुगुप्सी है।
के संस्कृत रूप 'आर्य' होने में स्वयं संदिग्ध थे, इसलिए शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ-आहार किए उन्होंने इस प्रयोग को सौत्रिक बतलाया। 'आयारिय' का बिना धर्म करने में असमर्थ शरीर से जुगुप्सा करने वाला- संस्कृत रूप आकारित भी होता है। आकारित अर्थात् किया है।
आहान-वचन। कुछ लोग केवल आहान-वचनों-मंत्रों के जप ___पहले अर्थ की ध्वनि है-असंयम के प्रति जुगुप्सा करने से सर्वदुःख मानते हैं, प्रत्याख्यान या संयम करना आवश्यक वाला और दूसरे की ध्वनि है.-शरीर की असमर्थता के प्रति नहीं मानते। 'आयारिय' पाठ के आधार पर यह व्याख्या भी १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ ।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पात्रग्रहणं तु व्याख्याद्वयेऽपि मा भूत निष्परिग्रहतया (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६।
पात्रस्याप्यग्रहणमिति कस्यचिद् व्यामोह इति ख्यापनार्थ, तदपरिग्रहे हि २. आयारो १२५।
तपाविधलब्ध्याद्यभावेन पाणिभोक्तृत्वाभावाद्गृहिभाजन एव भोजनं भवेत, ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०१५२: दुगुंछा.संजमो, किं दुग्छति? असंजमम्। तत्र च बहुदोषसम्भवः, तथा च शय्यम्भवाचार्य:४. (क) बृहवृत्ति, पत्र २६६ : जुगुप्सते आत्मानमाहार बिना पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सिया तत्थ ण कप्पइ। धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशीलो जुगुप्सी।
एयमझें ण भुंजंति, णिग्गंथा गिहिभायणे।। (ख) सुखबोधा, पत्र ११२ ।
७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ : आचारो निविष्टमाचरितं, आचारणीयं वा। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ : पाति जीवानात्मानं वा तेनेति पात्र, ८. बृहवृत्ति, पत्र २६६ : 'आयरियं' ति सूत्रत्वात आराद्यातं सर्वकयक्तिभ्य
आत्मीयपात्रग्रहणात् मा भूत्कश्चित्परपात्रे गुहीत्वा भक्षयति तेन पात्रग्रहणं, इत्यार्य तत्त्वम्। ण सो परिग्गह इति।
६. सुखबोधा, पत्र ११३ : 'आचारिक' निजनिजाऽचारभवमनूष्ठानमेव । 90. Sacred Books of the East. Vol. XLV, Uttarādyayana, P. 25.
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