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अकाममरणीय
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अध्ययन ५ : श्लोक ३०-३२ टि० ४७-५३ को उत्सव मानते हैं।
आदमी मरना कब और क्यों चाहता है? इस प्रश्न का ४७. अहिंसाधर्मोचित सहिष्णुता (दयाधम्मस्स खंतिए) समाधान है कि जब मुनि यह देखता है कि उसकी मन, वचन
दया का अर्थ है-अहिंसा और क्षान्ति का अर्थ है- और काया की शक्ति क्षीण हो रही है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहिष्णुता। अहिंसा और सहिष्णुता में गहरा संबंध है। कष्ट सहने के गुणों की अभिवृद्धि नहीं हो रही है, तब उसे मरण अभिप्रेत की क्षमता को विकसित किए बिना अहिंसा का विकास संभव नहीं होता है। है। इस विषय में सूत्रकृतांग आगम का यह श्लोक द्रष्टव्य है'- इसकी ध्वनि यह है कि मनुष्य जैसे जीने के लिए स्वतंत्र
'घुणिया कुलियं व लेववं, कसए देहमणसणादिहिं। है वैसे मरने के लिए भी स्वतंत्र है। मरण भी वांछनीय है। अविहिंसामेव पचए, अणधम्मो मणिणा पवेडओ। उसकी शर्त है कि वह आवेशकृत न हो। जब यह स्पष्ट प्रतीत वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने 'दयाधम्मस्स..........' का अर्थ
होने लगे कि योग क्षीण हो रहे हैं, उस समय समाधिपूर्ण मरण दसविध मुनिधर्म किया है।
वांछनीय है। ४८. तथाभूत (उपशान्त) (तहाभूएण)
५१. कष्टजनित रोमांच को (लोमहरिस) तथाभूत का अर्थ है-आत्मभूत, स्वाभाविक । वही आत्मा
चूर्णिकार ने रोमांचित होने के तीन कारण माने हैं-(१) तथाभूत होती है जो राग-द्वेष से रहित होती है। यह चर्णि का भय (२) अनुकूल उपसर्ग और (३) हर्ष ।' अभिमत है।
'रलयोरैक्यं'—इस न्याय से लोमहरिस शब्द के दो संस्कृत याचार्य ने तथाभत का अर्थ उपशांत मोह किया के रूप बनते हैं—लोमहर्ष और रोमहर्ष। इसका वैकल्पिक अर्थ है-मरणकाल से पूर्व जो मनि ५२. (भेदं देहस्स कंखए) अनाकुलचित्त वाला था, वह मरणकाल में भी वैसा ही रहे, वह मुनि शरीर के भेद की प्रतीक्षा करे। चूर्णिकार का मानना तथाभूत होता है।
है कि औदारिक शरीर के भेद की नहीं, किन्तु आठ प्रकार के ४९. प्रसन्न रहे.....उद्विग्न न बने (विप्पसीएज्ज) कर्मरूपी शरीर के भेद की आकांक्षा करें।' इसका तात्पर्य यह है कि मुनि पंडितमरण और बालमरण
वृत्तिकार ने माना है कि मुनि मरण की आशंसा न करे, दोनों की परीक्षा कर अपने कषायों का अपनयन कर प्रसन्न किन्तु शरीर की सार-संभाल न करता हुआ मरण की प्रतीक्षा रहे, स्वस्थ रहे। अपनी तपस्या का गर्व कर वह अपनी आत्मा
या करे। मुनि के लिए मरण की आशंसा वर्जनीय है। को कलुषित न करे।
५३. मरण-काल प्राप्त होने पर (अह कालम्मि संपत्ते) एक शिष्य तपस्या में संलग्न था। उसने बारह वर्ष की मुनि अपनी संयम-यात्रा का निर्वहन करते-करते जब संलेखना की। एक दिन वह गुरु के पास आकर बोला-गुरुदेव! यह देखता है कि शरीर और इन्द्रियों की हानि हो रही है, योग अब मैं क्या करूं? गुरु उसकी आंतरिकता से परिचित थे। क्षीण हो रहे हैं, स्वाध्याय आदि में बाधा आ रही है, तब वह उन्होंने कहा-वत्स ! कृश कर। वह समझा नहीं। बार-बार शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाए। वह सोचे, मुझे जो करना पूछने पर भी गुरु का यही उत्तर रहा—कृश कर, कृश कर। एक था, वह मैं कर चुका हूं। मुझ पर जो दायित्व था, उसका मैंने ही उत्तर सुनकर शिष्य तिलमिला उठा और उसने अपनी उचित निर्वाह किया हैअंगुली को तड़ाक से तोड़ते हुए कहा—अब और क्या कृश निफाइया य सीसा, सउणी जह अंडयं पयत्तेणं। करूं? शरीर तो अस्थिपंजर मात्र रह गया है। गुरु बोले—जिससे बारससंवच्छरियं, अह संलेह ततो करइ।' प्रेरित होकर तूने अंगुली तोड़ी, उस प्रेरणा को कृश कर, क्रोध जैसे पक्षिणी अपने अंडे को प्रयत्नपूर्वक सेती हुई उसे को कृश कर, कषाय को कृश कर। अब वह समझ गया। निष्पादित करती है, वैसे ही मैंने भी अपने गण में शिष्यों का ५०. जब मरण अभिप्रेत हो (तओ काले अभिप्पेए) निष्पादन कर अपने दायित्व का निर्वाह किया है। अब मरणकाल
प्रश्न होता है कि क्या कभी मरण भी अभिप्रेत होता है? संप्राप्त है, अतः मुझे बारह वर्षों की संलेखना में लग जाना
सूयगडो १२।१४। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ : दयाप्रधानो धर्मों दयाधर्मो दशविधयतिधर्मरूप,
तस्य सम्बन्धिनी या क्षान्तिस्तया। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४१ : तथाभूतेन अप्पणा--तेन प्रकारेण
भूतस्तथाभूतः, रागद्वेषवशगो ह्यात्मा अन्यथा भवति, मद्यपानां विश्व
(चित्तवत्), तदभावे तु आत्मभूत एव। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ : तथाभूतेन-उपशान्तमोहोदयेन। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४१ : अथवा यथैव पूर्वमव्याकुलमनास्तथा
मरणकालेऽपि तथाभूत एव।।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४२ : स तु भयाद् भवति, अनुलोमै र्वा
उपसर्गः हर्षाद् भवति। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४२ : भिद्यते इति भेदः, अष्टविधकर्मशरीरभेद
कांक्षति, न तूदारिकस्य। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २५४ ।
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