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अकाममरणीय
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अध्ययन ५: श्लोक २४-२६ टि०३५-४१
(२) निर्गन्थ-उपोसथ
हैं-इस तथ्य को अनाग्रह-बुद्धि से समझने का प्रयत्न किया निग्रन्थ अपने अनुयायियों को इस प्रकार व्रत लिवाते जाता तो ये आक्षेप आवश्यक नहीं होते। हैं—पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में सौ-सौ योजन ३८. औदारिक शरीर (छविपव्वाओ): तक जितने प्राणी हैं तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर। इस प्रकार कुछ छवि का अर्थ है चमड़ी और पर्व का अर्थ है शरीर के के प्रति दया व्यक्त करते हैं और कुछ के प्रति नहीं। संधिस्थल-घुटना, कोहनी आदि। छविपर्व का तात्पर्यार्थ हैनिर्ग्रन्थ कहते हैं-तू सभी वस्तुओं को त्याग कर इस प्रकार औदारिक-चर्म, अस्थि आदि से बना हुआ शरीर। व्रत ले। न मैं कहीं किसी का हूं और न मेरा कहीं कोई कुछ ३९. यक्ष-सलोकता....को प्राप्त होता है (जक्ख सलोगय) है-ऐसा व्रत लेना मिथ्या है, झूठा है। वे मृषावादी हैं। उस
यक्ष-सलोकता-देवों के तुल्य लोक अर्थात् देवगति ।' रात्रि के बीतने पर वे उन त्यक्त वस्तुओं को बिना किसी के दिये
'ऐतरेय आरण्यक' और 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में सलोकता का ही उपयोग में लाते हैं। इस प्रकार वे चोरी करने वाले होते हैं।
प्रयोग मिलता है। इस व्रत का न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है,
आचार्य सायण और शंकराचार्य ने सलोकता का अर्थ न महान प्रकाश होता है और न महान् विस्तार।'
'समान-लोक या एक स्थान में बसना' किया है।' (३) आर्य-उपोसथ
दीघनिकाय के अनुवाद में भी इसका अर्थ यही है।" आर्य-श्रावक तथागत का अनुस्मरण करता है। उसका दीघनिकाय मल में सलोकता के अर्थ में सहव्यता का प्रयोग चित्त मेल रहित हो जाता है। आर्य-श्रावक धर्म का, संघ का, मिलता
मिलता है। देवताओं का अनुस्मरण करता है। वह हिंसा, चोरी, अब्रह्मचर्य,
४०. उत्तरोत्तर (.....अणुपुव्वसो) मृषावाद का त्याग करता है, एकाहारी होता है। पाणं न हाने न चादिन्नं आदिए।
सौधर्म देवलोक से अनुत्तरविमान पर्यन्त देवलोकों में
निवास करने वाले देवों में मोह आदि क्रमशः कम होते जाते हैं। मुसा न भासे न च मज्जपो सिया।।
अनुत्तर विमान वासी देवों का मोह अत्यंत उपशांत होता है। वे अब्रह्मचर्या विरमेय्य मेथुना।
वीतराग की-सी स्थिति में रहते हैं। 'अणुपुब्बसो' शब्द से यही रत्तिं न मुंजेय्य विकालभोजनं।
सूचित किया गया है। मालं न धारेय्य न च गन्धआचरे।
तत्त्वार्थ के अनुसार देवलोकों में उत्तरोत्तर अभिमान कम मंचे छमायं वसथेय सन्यते।।
होता है। वे देव स्थान, परिवार, शक्ति, अवधि, सम्पत्, आयुष्य एतं हि अट्ठगिकमाहुपोसथं।
की स्थिति आदि का अभिमान नहीं करते। बुद्धण दुक्खंतगुणं पकासित।'
४१. उत्तम (उत्तराई) चातुद्दसी पंचदसी याव पक्खस्स अट्ठमी।
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सबसे ऊपर पाटिहारियपक्खंच अलैंगसुसमागतं।
स्थित देवलोक-अनुत्तरविमान किया है। किन्तु पूरे श्लोक उपोसथं उपवसेय्य, यो पंसस मादिसो नरो के संदर्भ में यह अर्थ विमर्शणीय है। इसका अर्थ यदि
इन प्रकारों में निर्ग्रन्थ-उपोसथ पर कुछ आक्षेप किये गये अनुत्तरविमान किया जाए तो अगले श्लोक में प्रयुक्त 'कामरूविणो' हैं। किन्तु उपोसथ की साधना अमुक काल के लिये की जाती की संगति नहीं बैठती। इसीलिए उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़ा, है और उसके व्रत भी अमुक काल तक स्वीकार किए जाते अन्यथा उसकी आवश्यकता नहीं होती। १. अंगुत्तर निकाय, भा० १ पृ० २१२-१३ ।
८. दीघनिकाय, पृ० ८८। २. वही, भा० १ पृ०२१३-२२१॥
६. दीघनिकाय, ११३, पृ० २७३ : चन्दिम-सुरियानां सहव्यताय मग्ग ३. वही, भा० १ पृ० १४७।
देसेतुं-अजयमेव उजु-मग्गो। ४. सुखबोधा, पत्र १०७ : छविश्च-त्वक पाणि च-जानुकूर्परादीनि छविपर्व १० बरवत्ति पत्र : अणपब्बयो नि प्राग्वदनपर्वत. कमेण तद्योगाद् औदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः।
विमोहादिविशेषणविशिष्टाः, सीधादिषु अनुत्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया ५. वही, पत्र १०७ : यक्षाः-देवा, समानो लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भाव
प्रकर्षवन्त्येव विमोहत्वादीनी। सलोकता य: सलोकता यक्षसलोकता ताम्।
११. तत्त्वार्थ ४॥२२ भाष्य। ६. (क) ऐतरेयारण्यक, ३।२।१७ पृ० २४२, २४३ : वेदान्हं सायुज्यं ।
१२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : उत्तराणि नाम सब्बोवरिमाणि सरूपता सलोकतामश्नुते।
जाणि, ताणि हि सव्वविमाणुत्तराणि । (ख) बृहदारण्यक, १।५।२३, पृष्ट ३८८ : एतस्यै देवतायै सायुज्यं
(ख) बृहवृत्ति, पत्र २५२। सलोकतां जयति।
१३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : कामतः रूपाणि कुर्वन्तीति रूपाः ७. (क) ऐतरेयारण्यक, पृ०२४३ : सलोकता समानलोकतां था एकस्थानत्वम्।
कामरूपाः, स्यादू-अनुत्तरा न विकुर्वन्ति, ननु तेषां तदेवेष्टं रूपं (ख) बृहदारण्यक उपनिषद्, पृ० ३६१ : सलोकतां समानलोकतां या
येन सत्यां शक्ती प्रयोजनाभावाच्च नान्यद् विकुर्वन्ति। एकस्थानत्वम्।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५२।
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