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टिप्पण:
अध्ययन ६: क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय
है।
१. अविद्यावान् (अविज्जा)
रखा और कहा-मेरे लिए घर, शय्या और स्त्री की व्यवस्था अविद्या शब्द के अनेक अर्थ हैं-आध्यात्मिक अज्ञान, करो। देखते-देखते वहां सब उपस्थित हो गए। उस चांडाल ने भान्ति या माया, अज्ञान, मिथ्यादर्शन, तत्त्वज्ञान का अभाव आदि। स्त्री के साथ भोग भोगा। प्रभात होते-होते विद्या का साहरण
प्रस्तुत प्रकरण में चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- किया और सब कुछ पूर्ववत् हो गया। अज्ञान और मिथ्यादर्शन।' शान्त्याचार्य के अनुसार इसके दो उस आलसी का मन ललचाया। उसने सोचा, व्यर्थ ही अर्थ ये हैं-तत्त्वज्ञान से शून्य, पर्याप्त ज्ञान से रहित। जिसमें परिभ्रमण से क्या? मैं इस चांडाल की सेवा कर घड़े को प्राप्त तत्त्वज्ञानात्मिका विद्या न हो उसे 'अविद्य' कहा जाता है। अविद्य कर लूं तो सब कुछ हो जाएगा। वह उस चांडाल की सेवा का अर्थ सर्वथा अज्ञानी नहीं, किन्तु अतत्त्वज्ञ है। जीव सर्वथा करने लगा। कुछ दिन बीते। एक दिन चांडाल ने पूछा- क्या ज्ञानशून्य होता ही नहीं। यदि ऐसा हो तो फिर जीव और अजीव चाहता है तू? वह बोला-आप जैसा जीवन जी रहे हैं, मैं भी में कोई भेद ही नहीं रह जाता।
वैसा ही जीवन जीना चाहता हूं। चांडाल बोला-घड़ा लोगे या यहां 'अविद्या' का अर्थ मिथ्यादर्शन होना चाहिए। पतंजलि विद्या? उसने सोचा, विद्या साधने का कष्ट कौन करेगा। उसने के अनुसार अनित्य आदि में नित्य आदि की अनुभूति ‘अविद्या' कहा-घड़ा दो। उसे घड़ा मिल गया। वह घर पहुंचा। घड़े के
प्रभाव से उसे सारी सामग्री मिली। एक दिन वह मद्यपान कर, २. वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं (सव्वे घड़े को वह कंधे पर रख नाचने लगा। प्रमाद बढ़ा। घड़ा ते दुक्खसंभवा)
जमीन पर गिरा और फूट गया। साथ ही साथ विद्या के प्रभाव सभा अविद्यावान् पुरुष दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। से होने वाली सारी लीला समाप्त हो गई। अब वह सोचने लगा. चूर्णिकार ने यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है
यदि मैं उस चांडाल से घड़ा न लेकर विद्या लेता तो कितना नातः परतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । अच्छा होता ! पर अब..... । वह पुनः दरिद्रता के दुःखों से घिर यथाऽज्ञानमहारोग, सर्वरोगप्रणायकम् ।।
गया। शान्त्याचार्य ने दुःख का अर्थ-पाप कर्म किया है। ३. बार-बार लुप्त होते हैं (लुप्पंति बहुसो मूढा)
अज्ञान से होने वाले दुःख को समझाने के लिए व्याख्याकारों चूर्णि में 'लुप्पन्ति' का अर्थ है शारीरिक और मानसिक ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है-एक आलसी व्यक्ति गरीबी से दुःखों से बाधित होना। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दरिद्रता आदि प्रताड़ित होकर घर से धन कमाने निकला। वह सभी नगरों और दुःखों से बाधित होना किया है। यहां मूढ़ का अर्थ हैगांवों में घूमा। उसे कहीं कुछ नहीं मिला। उसने घर की ओर तत्त्व-अतत्त्व के ज्ञान से शून्य, हित-अहित के विवेक से विकल। प्रस्थान किया। रास्ते में वह एक देव मंदिर में ठहरा। वह गांव ४. पाशों (बंधनों) व जातिपथों (पासजाई पहे) चांडालों का था। रात में उसने देखा, एक चांडाल मंदिर में आया चूर्णि में 'पास' का अर्थ 'पश्य' और 'जातिपथ' का अर्थ है। उसके हाथ में एक विचित्र घड़ा है। उसने घड़े को एक ओर चौरासी लाख जीवयोनि किया गया है। वृत्ति में 'पास' का अर्थ
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४७, १४८ : विद्यत इति विद्या, नैषां विद्या ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : दुःखयतीति दुःखं पापं कर्म।
अस्तीति अविद्या.......अविद्यादनं (नरा) मिथ्यादर्शनमित्यर्थः । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४८। २. वृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : वेदनं विद्या तत्त्वज्ञानात्मिका, न विद्या अविद्या- (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६२, २६३ । मिथ्यात्वोपहतकुत्सितज्ञानात्मिका, तत्प्रधानाः पुरुषाः अविद्यापुरुषाः, ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४६ : सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं लुपंति।
अविद्यमाना वा विद्या येषां ते अविद्यापुरुषाः। इह च विद्या शब्देन . बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : लुप्यन्ते दारिद्रयादिभिर्बाध्यन्ते। प्रभूतश्रुतमुच्यते, न हि सर्वथा श्रुताभावः जीवस्य, अन्यथा अजीवत्वप्राप्तेः ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४९ : मूढा-तत्त्वातचअजाणगा। उक्तं हि
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : मूढा हिताहितविवेचनं प्रत्यसमाः । सव्वजीवाणंपि य अक्खरस्सऽणतभागो णिच्चुघाडितो।
१०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४९: पास ति पास, जायत इति जाती, जदि सोवि आवरिज्जेज्ज तो णं जीवो अजीवत्तणं पावेज्जा।।
जातीनां पंथा जातिपंथाः, अतस्ते जातिपंथा बहुं 'चुलसीति खलु लोए ३. देखें इसी अध्ययन का आमुख।
जोणीणं पमुहसयसहरसाई।' ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४८ ।
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