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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन ५ : श्लोक १८-२६ जैसा मैंने सुना भी है-पुण्यशाली, संयमी और जितेन्द्रिय पुरुषों का मरण प्रसन्न और आघात रहित होता है।
यह सकाम-मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है
और न सभी गृहस्थों को। क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के शील वाले होते हैं और भिक्षु भी विषम-शील वाले होते हैं। कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है। किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता
१०२ मरणमपि सपुण्यानां, यथा ममैतदनुश्रुतम्। विप्रसन्नमनाघातं, संयतानां वृषीमताम् ।। नेदं सर्वेषु भिक्षुषु, नेदं सर्वेषु अगारिषु। नानाशीला अगारस्थाः, विषमशीलाश्च भिक्षवः ।। सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, अगारस्थाः संयमोत्तराः। अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः।। चीराजिनं नाग्न्यं, जटी सङ्घानिमुण्डित्वम्। एतान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलं पर्यागतम्। पिण्डावलगो वा दुःशीलो, नरकान्न मुच्यते। भिक्षादो वा गृहस्थो वा, सुव्रतः क्रामति दिवम्।। अगारि-सामायिकाङ्गानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति। पौषधं द्वयोः पक्षयोः, एकरात्रं न हापयति।।
१५.मरणं पि सपुण्णाणं,
जहा मेयमणुस्सुयं। विप्पसण्णमणाघायं,
संजयाण वुसीमओ।। १६.न इमं सव्वेसु भिक्खूसु,
न इमं सव्वेसुऽगारिसु। नाणासीला अगारत्था,
विसमसीला य भिक्खुणो।। २०. संति एगेहिं भिक्खूहिं,
गारत्था संजमुत्तरा। गारेत्थेहि य सव्वेहिं,
साहवो संजमुत्तरा।। २१.चीराजिणं नगिणिणं,
जडी संघाडि मुंडिणं। एयाणि वि न तायंति,
दुस्सीलं परियागयं ।। २२. पिंडोलए व दुस्सीले,
नरगाओ न मुच्चई। भिक्खाए वा गिहत्थे वा,
सुव्वए कम्मई दिवं ।।। २३. अगारि-सामाइयंगाई
सड्डी काएण फासए। पोसहं दुहओ पक्खं,
एगरायं न हावए।। २४. एवं सिक्खासमावन्ने,
गिहवासे वि सुव्वए। मुच्चई छविपव्वाओ,
गच्छे जक्ख-सलोगयं ।। २५. अह जे संवुडे भिक्खू,
दोण्हं अन्नयरे सिया। सव्वदुक्खप्पहीणे वा,
देवे वावि महड्डिए।। २६. उत्तराई विमोहाई,
जुइमंताणुपुव्वसो। समाइण्णाई जक्खेहिं, आवासाइं जसंसिणो ।।
चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना—ये सब दुष्टशील वाले साधु की३२ रक्षा नहीं करते।
भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।" भिक्षु हो या गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग में जाता है।५
श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े।
इस प्रकार व्रतों के आसेवन की शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर यक्ष-सलोकता को प्राप्त होता. है३६—देवलोक में चला जाता है। जो संवृत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव ।
एवं शिक्षासमापन्नः, गृहवासेऽपि सुव्रतः। मुच्यते छविपर्वणः, गच्छेद् यक्ष-सलोकताम् ।। अथ यः संवृतो भिक्षुः, द्वयोरन्यतरः स्यात्। सर्वदुःखप्रहीणो वा, देवो वाऽपि महर्द्धिकः ।। उत्तरा विमोहाः, द्युतिमन्तोऽनुपूर्वशः। समाकीर्णा यक्षैः, आवासा यशस्विनः।।
देवताओं के आवास उत्तरोत्तर उत्तम'' मोह रहित'२
और द्युतिमान् तथा देवों से आकीर्ण होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी
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