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अकाममरणीय
६. हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई ।
१०. कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥
११. तओ पुट्ठो आयंकेणं, गिलाणो परितप्पई । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ।।
१२. सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई । बाला कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ।। १३. तत्थोववाइयं ठाणं,
जहा मेयमणुस्सुयं । आहाकम्मेहिं गच्छतो, सो पच्छा परितप्पई ।। १४. जहा सागडिओ जाणं,
समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गंमि सोयई । १५. एवं धम्मं विउक्कम्म,
अहम्मं पडिवज्जिया । बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई । । १६. तओ से मरणंतमि, बाले संतस्सई भया । अकाममरणं मरई, धुत्ते व कलिना जिए ।। १७. एयं अकाममरणं,
बालाणं तु पवेइयं । एतौ सकाममरणं, पंडियाणं सुणेह मे ॥
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हिंस्प्रे बालो मृषावादी मायी पिशुनः शठः । भुंजानः सुरां मांसं श्रेय एतदिति मन्यते ।।
कायेन वचसा मत्तः वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु । द्विधा मलं संचिनोति शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ।।
ततः स्पृष्टः आतंकेन ग्लानः परितप्यते । प्रभीतः परलोकात् कर्मानुप्रेक्षी आत्मनः ।।
श्रुतानि मया नरके स्थानानि आशीलानां च या गतिः । बालानां क्रूरकर्मणा प्रगाढा यत्र वेदनाः ।। रात्रीपपातिक स्थान, यथा ममैतवनुतम्।। यथाकर्मभिर्गच्छन्, सः पश्चात् परितप्यते ।।
यथा शाकटिको जानन्, समं हित्वा महापथम् । विषमं मार्गमवतीर्णः, अक्षे भग्ने शोचति ।। एवं धर्म व्युत्क्रम्य, अधर्मं प्रतिपद्य । बालः मृत्युमुखं प्राप्तः, अक्षे भग्ने इव शोचति ।।
ततः स मरणान्ते, बालः संत्रस्यति भयात् । अकाममरणं म्रियते, धूर्त्त इव कलिना जितः ।।
एतदकाममरणं, बालानां तु प्रवेदितम् । इतः सकाममरणं, पण्डितानां शृणुत मम ।।
अध्ययन ५ : श्लोक ६-१७
हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रगट करने वाला " अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है और 'यह श्रेय है' ऐसा मानता है ।
वह शरीर और वाणी से मत्त होता है। धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह आचरण और चिंतनदोनों से उसी प्रकार कर्म मल का संचय करता है जैसे शिशुनाग (अलस या केचुआ मुख और शरीरदोनों से मिट्टी का
फिर वह आतंक से स्पृष्ट होने पर ग्लान बना हुआ परिताप करता है। अपने कर्मों का चिन्तन कर परलोक से भयभीत होता है।
वह सोचता है— मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जो शील रहित तथा क्रूर कर्म करने वाले अज्ञानी मनुष्यों की अन्तिम गति हैं और जहां प्रगाढ़ वेदना है।
उन नरकों में जैसा औपपातिक" (उत्पन्न होने का ) स्थान है, वैसा मैंने सुना है। वह आयुष्य क्षीण होने पर अपने कृत- - कर्मों के अनुसार वहां जाता हुआ अनुताप करता है।
जैसे कोई गाड़ीवान् समतल राजमार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है ।
इसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर, अधर्म को स्वीकार मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञान धुरी टूटे हुए गाड़ीवान् की तरह शोक करता है।
कर,
फिर मरणान्त के समय वह अज्ञानी मनुष्य परलोक के भय से संत्रस्त होता है और एक ही दाव में हार जाने वाले जुआरी की तरह शोक करता हुआ अकाम मरण से मरता है।
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यह अज्ञानियों के अकाम-मरण का प्रतिपादन किया गया है। अब पण्डितों के सकाम-मरण का मुझसे सुनो।"
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