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अकाममरणीय
मरण, चार मरण और पांच मरण भी होते हैं । बाल, बाल-पंडित और पंडित की अपेक्षा से वे इस प्रकार हैंबाल की अपेक्षा
(१) एक समय में दो मरण-अवधि और आत्यन्तिक में से एक और दूसरा बाल-मरण ।
(२) एक समय में तीन मरण-जहां तीन होते हैं वहां तद्भव मरण और बढ़ जाता है।
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(३) एक समय में चार मरण-जहां चार होते हैं वहां वशार्त्त-मरण और बढ़ जाता है।
पंडित की अपेक्षा
पंडित मरण की विवक्षा दो प्रकार से की है— दृढ़ संयमी पंडित और शिथिल संयमी पंडित ।
(क) दृढ़ संयमी पंडित
(४) एक समय में पांच मरण-जहां आत्मघात करते हैं। वहां वैहायस और गृद्धपृष्ठ में से कोई एक बढ़ जाता है। वलन्मरण और शल्य मरण को बाल-मरण के अन्तर्गत स्वीकार किया है।
(१) जहां दो मरण एक समय में होते हैं वहां अवधि - मरण और आत्यन्तिक-मरण में से कोई एक होता है क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। दूसरा पंडित-मरण । (२) जहां तीन मरण एक साथ होते हैं, वहां छद्मस्थ-मरण और केवलि-मरण में से एक बढ़ जाता है 1
(३) जहां चार मरण की विवक्षा है, वहां भक्त - प्रत्याख्यान,
इंगिनी और पादपोगमन में से एक बढ़ जाता है। (४) जहां पांच मरण की विवक्षा है, वहां वैहायस और गृद्ध-पृष्ठ में से एक मरण बढ़ जाता है । (ख) शिथिल संयमी पंडित
(१) जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां अवधि और आत्यन्तिक में से एक और किसी कारणवश वैहायस और गृद्धपृष्ठ में से एक। (२) कथंचिद् शल्य-मरण होने से तीन भी हो जाते हैं। (३) जहां वलन्मरण होता है वहां एक साथ चार हो जाते हैं ।
(४) छद्मस्थ- मरण की जहां विवक्षा होती है, वहां एक साथ पांच मरण हो जाते हैं।
भक्त - प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-मरण विशुद्ध संयम वाले पंडितों के ही होता है। दोनों प्रकार के पंडित-मरण की विवक्षा में तद्भव - मरण नहीं लिया गया है, क्योंकि वे देवगति में ही उत्पन्न होते हैं ।
१. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२७-२२६ बृहद्वृत्ति पत्र, २३७-३८ । २. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड), गाथा ५७-६१।
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बाल - पंडित की अपेक्षा
(9)
(२)
(३)
(४)
तद्भव - मरण साथ होने से तीन मरण । वशात मरण साथ होने से चार मरण ।
कथंचिद् आत्मघात करने वाले के वैहायस और गृद्ध-पृष्ठ में से एक साथ होने से पांच' । मरण के दो भेद
३.
जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां अवधि और आत्यन्तिक में से कोई एक और बाल - पंडित ।
अध्ययन ५ : आमुख
गोम्मटसार में मरण के दो भेद किए गए हैं- (१) कदलीघात ( अकालमृत्यु) और (२) संन्यास विष भक्षण, विषैले जीवों के काटने, रक्तक्षय, धातुक्षय, भयंकर वस्तुदर्शन तथा उससे उत्पन्न भय, वस्त्रघात, संक्लेश क्रिया, श्वासोच्छ्वास के अवरोध और आहार न करने से समय में जो शरीर छूटता है, उसे कदलीघात मरण कहा जाता है। कदलीघात सहित अथवा कदलीघात के बिना जो संन्यास रूप परिणामों से शरीर त्याग होता है, उसे त्यक्त-शरीर कहते हैं । त्यक्त-शरीर के तीन भेद हैं- ( १ ) भक्त - प्रतिज्ञा, (२) इंगिनी और (३) प्रायोग्य। इनकी व्याख्या इस प्रकार है
(१) भक्त- प्रतिज्ञा भोजन का त्याग कर जो संन्यास मरण किया जाता है, उसे 'भक्त-प्रतिज्ञा मरण' कहा जाता है । इसके तीन भेद हैं— जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य का कालमान अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट का १२ वर्ष और शेष का मध्यवर्ती ।
(२) इंगिनी अपने शरीर की परिचर्या स्वयं करे, दूसरों से सेवा न ले, इस विधि से जो संन्यास धारण पूर्वक मरण होता है उसे 'इंगिनी मरण' कहा जाता है।
(३) प्रायोग्य, प्रायोपगमन अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराए, ऐसे संन्यास पूर्वक मरण को प्रायोग्य या प्रायोपगमन मरण कहा है।
४. मरण के पांच भेट
मूलाराधना में दूसरे प्रकार से भी मरण विभाग प्राप्त होता
१. पंडित - पंडित मरण
२. पंडित-मरण
३. बाल-पंडित-मरण
४. बाल-मरण
५. बाल-बाल-मरण ।
प्रस्तुत अध्ययन में मरण के दो प्रकार बतलाए गए हैं। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है अकाम-मृत्यु का परिहार और सकाम-मृत्यु का स्वीकरण ।
३. मूलाराधना, आश्वास १, गाथा २६
पंडिदं पंडिदं मरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव । बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।।
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