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परीषह-प्रविभक्ति
४३ अध्ययन २ : श्लोक १४-१६ टि० २१-२४
हेमन्त के चले जाने और ग्रीष्म के आ जाने पर मुनि भय को छोड़ दिया, जिससे भय लगता था उससे छुटकारा पा एकशाटक या अचेल हो जाए यह आचारांग में बताया गया लिया। है।' रात को हिम, ओस आदि के जीवों की हिंसा से बचने के २२. आत्मा की रक्षा करने वाला (आयरक्खिए) लिए तथा बरसात में चल के जीवों से बचने के लिए वस्त्र शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कत रूप देकर दो भिन्न-भिन्न पहनने-ओढ़ने का भी विधान मिलता है।
अर्थ किए हैंस्थानांग में कहा है-पांच स्थानों से अचेलक प्रशस्त होता
आत्मरक्षितः-जिसने आत्मा की रक्षा की है।
आयरक्षित:-जिसने ज्ञान आदि के लाभ की रक्षा की है। (१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है।
'आहिताग्न्यादिषु' के द्वारा 'रक्षित' का परनिपात हुआ है। (२) उसका लाघव (उपकरण तथा कषाय की अल्पता) २३. (श्लोक १४-१५) प्रशस्त होता है।
मुनिचर्या का पालन करते-करते कभी साधक के मन में (३) उसका रूप (वेष) वैश्वासिक (विश्वास योग्य) होता संयम के प्रति अरति-अनत्साह पैदा हो सकता है। चौदहवें
श्लोक में अरति उत्पन्न होने के तीन कारणों तथा पन्द्रहवें श्लोक (४) तपोनुज्ञात-उसका तप (प्रतिसंलीनता नामक बाह्य में उसके निवारण के उपायों की चर्चा है। अरति उत्पन्न होने तप का एक प्रकार-उपकरण संलीनता) जिनानुमत होता है। के तीन कारण ये हैं(५) उसके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है।
१. एक गांव से दूसरे गांव में विचरण करना। स्थानांग के तीसरे स्थान में कहा है-तीन कारणों से
२. स्थायी स्थान या घर का न होना। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियां वस्त्र धारण कर सकती हैं
३. अकिंचन होना, अपना कुछ भी न होना। (१) लज्जा निवारण के लिए।
अरति निवारण के पांच उपाय ये हैं :(२) जुगुप्सा-घृणा निवारण के लिए।
१. विरत होना, अप्रतिबद्ध होना। (३) परीषह निवारण के लिए।
२. अरति आत्म-समुत्थ दोष है, आभ्यन्तर दोष है। जो इस अध्ययन के चौंतीसवें और पैंतीसवें श्लोक में जो
आत्मरक्षित होता है, जो आत्मा से आत्मा की रक्षा वस्त्र-निषेध फलित होता है, वह भी जिनकल्पी या विशेष
करता है, वैराग्यवान् है, उसको अगार-घर का अभिग्रहधारी की अपेक्षा से है—यह प्रस्तुत श्लोक से समझा जा
अभाव कभी नहीं सताता। सकता है।
३. जो धर्माराम है, जो निरन्तर धर्म में रमण करता है, २१. चूर्णिकार ने चौदहवें श्लोक के प्रसंग में एक
श्रुत, भावना आदि का अभ्यास करता है, वह कहीं भी कथा प्रस्तुत की है
रहे, आनंद का ही अनुभव करता है। एक बौद्ध भिक्षु अपने आचार्य के साथ कहीं जा रहा ४. अकिंचन होने या अपना कुछ भी न होने पर भी था। आचार्य आगे चल रहे थे और वह उसके पीछे। कुछ दूर वह निरारंभ होने के कारण अरति का वेदन नहीं जाने पर उसने मार्ग के एक पार्श्व में पड़ी हुई एक नौली
करता। आरम्भ या प्रवृत्ति के लिए 'स्व' चाहिए, देखी। उसने उसे उठाकर अपने थैले में रख ली। अब उसे __ अर्थ चाहिए। निरारम्भ व्यक्ति 'अर्थ' से मुक्त होता भय सताने लगा। वह आचार्य के पास आकर बोला--भंते! है। (चू. पृ. ६२) पीछे चलने से मुझे भय लगता है, इसलिए आपके आगे-आगे ५. उपशांत—जिसके कषाय शान्त होते हैं, वह अरति चलना चाहता हूं। आचार्य बोले-ठीक है। भय को छोड़। तू से स्पृष्ट नहीं होता। जो अहंकार, ममकार और अभय होकर आगे चल। वह कुछ दूर गया। आचार्य ने पूछा
तृष्णा से अभिभूत होता है, उसे अरति पग-पग पर क्या अब भी डर लगता है? शिष्य बोला- हां, अब भी भय
सताती है। लगता है। आचार्य ने उसे पुनः भय छोड़ने के लिए कहा। शिष्य २४. (संगो....इत्थिओ) में धर्मसंज्ञा का जागरण हुआ और तब उसने नौली को स्त्री अन्यान्य आसक्तियों को पैदा करने वाली महान् एक ओर फेंक दिया। आचार्य बोले--अरे, बहुत त्वरा से चल आसक्ति है। चूर्णिकार ने स्त्री-विषयक दो श्लोक उद्धृत किए रहा है। क्या अब भय नहीं लगता? शिष्य बोला-भंते! मैंने हैं
१. आयारो ८५०1
५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ६१। २. बृहवृत्ति, पत्र ६६ : तह निसि चाउक्कालं सज्झायज्झाणसाहणमिसीणं। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६ : आत्मा रक्षितः दुर्गतिहेतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः, हिममहियावासोसारयाइक्खाणिमित्तं तु।।
आहिताग्न्यादिषु दर्शनात् क्तान्तस्य परनिपातः । आयो वा-ज्ञानादिलाभो ३. ठाणं ५।२०१।
रक्षितोऽनेनेत्यायरक्षितः। ४. ठाणं ३३४७।
८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६५।
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