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चतुरंगीय
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अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ३, ४
चूर्णि में इन कथाओं के लिए 'चोल्लग पासग' इतना मात्र उल्लेख प्राप्त होता है।'
होती । वह उनको देखते ही कुपित हो जाता है । अप्रीति के कारण वह उनके पास जाने से हिचकिचाता है। कोई-कोई बृहद्वृत्ति ने इन दस कथाओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया व्यक्ति में मोह की उदग्रता होती है। वह आचार्य या मुनि से सदा द्वेष रखता है । वह भी धर्म-श्रवण के लिए नहीं जा पाता।
है।
सुखबोधा में ये कथाएं विस्तार से प्राप्त हैं। इनमें तथा बृहद्वृत्ति की कथाओं में भाषा और भाव का अन्तर भी स्पष्ट परिलक्षित होता है |
३. श्रुति (सुई)
धर्म के चार अंग हैं— मनुष्य जन्म, श्रुति-धर्म का श्रवण, श्रद्धा-धर्म के प्रति अभिरुचि और संयम में पराक्रम । ये चारों दुर्लभ है।
नियुक्तिकार ने श्रुति की दुर्लभता के तेरह कारण बतलाए
१. आलस्य
२. मोह
३. अवज्ञा या अश्लाघा
४. अहंकार
५. क्रोध
६. प्रमाद
७. कृपणता
८. भय
६. शोक
१०. अज्ञान
११.
व्याक्षेप
चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने इन कारणों को समझाने का प्रयास किया है । वह इस प्रकार है
मनुष्य आलस्य के वशीभूत होकर धर्म के प्रति उद्यम नहीं करता । वह कभी धर्माचार्य के पास धर्म-श्रवण करने के लिए नहीं जाता।
१२.
कुतूहल १३. क्रीड़ाप्रियता ।
गृहस्थ के कर्तव्यों को निभाते निभाते उसमें एक मूढ़ता या ममत्व पैदा हो जाता है। वह पूरा समय उसी में डूबा रहता है। उसमें हेय और उपादेय के विवेक का अभाव हो जाता है।
१.
उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ६४ ।
२. बृहद्वृत्ति पत्र १४५-१५० ।
३. सुखबोधा, पत्र ५६-६७ ।
४.
उसके मन में श्रमणों के प्रति अवज्ञाभाव पैदा हो जाता है। वह सोचता है, ये मुंड श्रमण क्या जानते हैं? मैं इनसे अधिक जानता हूं । ये मुनि कितने मैले कुचैले रहते हैं, इनमें कोई संस्कार नहीं है। ये प्रायः अपरिपक्व अवस्था के हैं, ये मुझे क्या धर्म देशना देंगे?
व्यक्ति के मन में जब जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य का अहंकार जाग जाता है तब वह सोचता है— ये मुनि अन्य जाति के हैं। मेरा कुल और जाति इतनी उत्तम है, फिर मैं इनके पास कैसे जाऊं?
किसी के मन में आचार्य या मुनि के प्रति प्रीति नहीं
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उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १६०, १६१ : आलस्य मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणता ।
भय सोगा अन्नाणा वक्खेव कुऊहला रमणा । ।
कुछ व्यक्ति निरन्तर प्रमाद में रहते हैं, नींद लेना, खाना-पीना ही उन्हें सुहाता है। वे भी धर्म-श्रवण से वंचित रहते
हैं ।
कुछ व्यक्ति अत्यन्त कृपण होते हैं। वे सोचते हैं, यदि धर्मगुरुओं के पास जाएंगे तो अर्थ का निश्चित ही व्यय होगा । उनको कुछ देना - लेना पड़ेगा। इसलिए इनसे दूर रहना ही अच्छा है।
व्यक्ति जब धर्म प्रवचन में बार-बार नारकीय जीवों की वेदना की बात सुनता है, उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और मन भय से व्याप्त हो जाता है। यह भय धर्म-श्रवण में बाधक बनता है ।
शोक या चिन्ता भी धर्म-श्रवण में बाधक बनती है। पत्नी या पति का वियोग हो जाने पर निरन्तर उनकी स्मृति में खोए रहना भी एक अवरोध है।
जब व्यक्ति का ज्ञान मोहावृत हो जाता है, तब वह मिथ्या धारणाओं में फंस कर धर्म की श्रुति से वंचित रह जाता है ।
गृहवास में व्यक्ति निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है। वह सोचता है, अभी वह करना है, अभी यह करना है। इससे उसका मन व्याक्षिप्त हो जाता है।
कुतूहल भी एक बाधा है। व्यक्ति कभी नाटक देखने में, कभी संगीत सुनने में या अन्यान्य मनोरंजन की क्रीड़ाओं में रत रहता है । वह धर्म के प्रति आकृष्ट नहीं हो सकता।
कुछ व्यक्ति सांडों को लड़ाने, तीतर और कुक्कटों को लड़ाने में रस लेते हैं। कुछ लोग जुआ खेलने में रत रहते हैं । वे धर्म श्रुति का लाभ नहीं ले पाते।
४. श्रद्धा (सद्धा)
धर्मश्रुति के प्राप्त हो जाने पर भी उस पर पूर्ण श्रद्धा होना अति दुर्लभ है।
मिथ्यादृष्टि मनुष्य गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन - आगम पर श्रद्धा नहीं करता। वह उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव पर श्रद्धा कर लेता है।
सम्यग्दृष्टि मनुष्य गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा करता है। उसके असद्भाव पर श्रद्धा करने के दो हेतु हैं
एएहिं कारणेहिं लद्धूण सुदुल्लहंपि माणुस्सं । न लहइ सुइं हिअकरिं संसारुत्तारिणि जीवो ।। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६४-६५ ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५१ ।
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