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उत्तरज्झयणाणि
विष के प्रभाव से दोनों मर गए।
इस पक्षी के लिए भारंड, भारुण्ड और भेरुंड - ये तीन शब्द प्रचलित हैं। आचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला में भारुण्ड का नाम भोरुड है— भारुंडयम्मि भोरुडओ ( ६ । १०८) । उनकी अनेकार्थक नाममाला ( ३।१७३ ) में "भेरुण्डो भीषण खगः 'भेरुण्ड: 5: खगः पक्षी, यथा-विसंहिता विनश्यंति, भेरुण्डा इव पक्षिणः " यह उल्लेख मिलता है ।
वसुदेवहिण्डी में एक कथा है
कई एक बनजारे व्यापार के लिए एक साथ निकले । प्रवास करते-करते वे अजपथ' नामक देश में आ पहुंचे । वहां पहुंचकर वे सभी व्यापारी 'वज्रकोटि संस्थित' नामक पर्वत को लांघकर आगे निकल गए। परन्तु अति शीत के कारण बकरे कांपने लगे। उनकी आंखों पर से पट्टियां हटा ली गई और बाद में जिन पर बैठकर यहां आए थे उन सभी बकरों को मारकर उनकी चमड़ी से बड़ी-बड़ी मसकों का निर्माण किया । तदनन्तर रत्नद्वीप जाने के इच्छुक व्यापारी इन मसकों में एक-एक छुरा लेकर बैठ गए और अन्दर से उन्हें बन्द कर लिया।
उस पर्वत पर भक्ष्य की खोज में भारंड पक्षी आए और इन मसकों को मांस का लोंदा समझकर उठा ले गए। रत्नद्वीप में नीचे रखते ही अन्दर बैठे हुए व्यापारी छुरे से मसक को काटकर बाहर निकल गए। तदनन्तर वहां से यथेष्ट रत्नों का गट्ठर बांधकर पुनः मसक में आ बैठे। भारंड पक्षियों ने उन मसकों को पुनः उस पर्वत पर ला छोड़ दिया।
प्राप्त सामग्री के आधार पर यह भारंड पक्षी का संक्षिप्त परिचय है । प्राचीन काल में ये पक्षी यत्र-तत्र गोचर होते थे परन्तु आजकल उनका कोई इतिवृत्त नहीं मिलता। अभीअभी कुछ वर्ष पूर्व हमने एक पत्र में पढ़ा कि एक दिन एक विशालकाय पक्षी आकाश से नीचे उतर रहा था। उसकी गति से उठी हुई आवाज हवाई जहाज की आवाज जैसी थी । ज्यों ही वह जमीन के पास आया, त्यों ही वहां खड़े कई पशु ( व्याघ्र, सिंह आदि ) स्वतः उसकी ओर खिंच गए और वह उन्हें
खा गया।
१५. थोड़े से दोष को भी (जं किंचि)
'यत् किंचित्' का प्रासंगिक अर्थ थोड़ा सा प्रमाद या दोष है । दुश्चिन्तित, दुर्भाषित और दुष्कार्य- ये सब प्रमाद हैं । जो दुश्चिन्तन करता है वह भी बन्ध जाता है। जो दुश्चिन्तन कर उसे क्रियान्वित करता है, वह तो अवश्य ही बन्धता है। इसलिए
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अध्ययन ४: श्लोक ७ टि० १५, १६
यत् किंचित् प्रमाद भी पाश है――बन्धन है ।' शान्त्याचार्य ने 'यत् किंचित्' का मुख्य आशय गृहस्थ से परिचय करना और गौण आशय प्रमाद किया है।
१६. नए-नए गुण की उपलब्धि हो... पोषण दे (लानंतरे जीविय वूहइत्ता)
चूर्णिकार ने 'लाभंतरे' का अर्थ-लाभ देने वाला किया है । * बृहद्वृत्ति में लाभ का अर्थ अपूर्व उपलब्धि और 'अन्तर' का अर्थ विशेष किया है। इसका तात्पर्य है विशिष्ट विशिष्टतर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की उपलब्धि । *
वेन्नाकतट नगर में मंडिक नाम का जुलाहा रहता था। वह दूसरों के धन का अपहरण कर अपनी आजीविका चलाता था। वह अपने पैरों पर पट्टी बांधे राजमार्ग पर कपड़े बुनता । लोगों के पूछने पर कहता – मेरे पांव पर भयंकर विषफोड़ा हुआ है। वह हाथ में लाठी लिए, लंगड़ाता हुआ चलता। रात में वह घरों में सेंध लगाकर चोरी करता और गांव के निकट एक भूमिघर में उस धन को एकत्रित कर रखता। वहां उसकी रहती । उस भूमिघर के मध्य में एक गहरा कुंआ था। चोर मंडिक अपने द्वारा चुराए गए धन को उठाकर लाने वाले भारवाहकों के साथ वहां आता। उसकी बहिन उनका आतिथ्य करने के बहाने कुए पर पहले से बिछे हुए आसन पर उन्हें बिठाती और वे सारे उस अंधकूप में गिर कर मर जाते।
२.
वह देश जहां बकरों पर प्रवास किया जाता है। उस देश में बकरों की आंखों पर पट्टी बांधकर सवारी की जाती है।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७ अंकिंचि अप्पणा पमादं पासति दुच्चितितादि, दुव्विचितिएणावि वज्झति, किं पुण जो चिंतित्तु कम्मुणा सफलीकरोति, एवं दुब्भासितदुच्चितिताति जं किंचि पासं ।
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सारा नगर चोर से संत्रस्त था। चोर पकड़ में नहीं आ रहा था। नगर के सभ्रान्त व्यक्ति मिलकर राजा मूलदेव के पास गए। चोर की बात कही। राजा ने चिन्ता व्यक्त करते हुए उनको आश्वस्त करने दूसरे नगर-रक्षक की नियुक्ति की । वह भी चोर को पकड़ने में असफल रहा। तब राजा स्वयं काले वस्त्र पहनकर चोर की टोह में रात में निकला। वह एक सभा में जा बैठा। कोई भी उसे पहचान नहीं सका। इतने में मंडिक चोर ने वहां आकर पूछा- कौन हो तुम ? मूलदेव बोला- भैया! मैं तो कार्पटिक हूं। मंडिक ने कहा- चलो मेरे साथ । 1 में कुछ मजदूरी दूंगा। वह उठा । मंडिक आगे-आगे चल रहा था और वह गुप्तवेशधारी राजा उसके पीछे-पीछे मंडिक एक धनी व्यक्ति के घर पहुंचा, सेंध लगाई और बहुत सारा धन चुराकर गठरियां बांधी और कार्पटिक के सिर पर सारी गठरियां रखकर गांव से बाहर आया । उस भूमिघर के पास आकर इस चोर ने सारी गठरियां नीचे उतारीं और अपनी बहिन को पुकार कर कहाइस अतिथि का सत्कार करो। मंडिक अन्यत्र चला गया। भगिनी ने इस अतिथि को देखा। इसके लावण्य और मुखच्छवि को
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३. बृहद्वृत्ति, पत्र २१७ यत्किंचिद् 'गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपिजं किंचि ' त्ति यत्किंचिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन ।
४.
उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ ११७ लाभंप्रयच्छतीति लाभान्तरं ।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र २१७ : लम्भनं लाभः - अपूर्वार्थप्राप्तिः, अन्तरं-विशेषः,
यावद् विशिष्ट विशिष्टतर सम्यगज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तिः... ।
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