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उत्तरज्झयणाणि
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'पुव्वाई वासाई' का अर्थ 'पूर्व जीवन के वर्ष' संगत लगता है । २२. पूर्व जीवन में (पुव्वमेवं )
'पुव्व' (पूर्व) का अर्थ है-- पहले का जीवन । चूर्णिकार ने आठवें श्लोक के प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित किया है। शिष्य गुरु से पूछता है—भंते! कुछ क्षणों या दिनों तक अप्रमत्त रहा जा सकता है। जो पूर्वकाल (दीर्घकाल) तक अप्रमत्त रहने की बात कही जाती है, वह कष्टकर है, कठिन है । इसलिए जीवन के अन्तिम चरण में अप्रमत्त रहना ही श्रेयस्कर है ।"
गुरु ने कहा- जो पहले जीवन में अप्रमादी नहीं होता, वह अन्त में अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता । क्योंकि
'पुव्वमकारितजोगो पुरिसो, मरणे उवट्ठिते संते। ण चइति व सहितुं जे अंगेहिं परीसहणिवादे ।।' - जो मनुष्य पूर्वजीवन में समाधि को प्राप्त नहीं होता, वह मरणकाल में अपने प्रमाद को नहीं छोड़ सकता और अपने शिथिल शरीर से न परीषहों को ही सहन करने में सक्षम होता है ।
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२३. शाश्वतवादियों के लिए ही (सासयवाइयाणं) प्रस्तुत चरण में शाश्वतवादी का प्रयोग आयुष्य के संदर्भ हुआ है। आयुष्य दो प्रकार का है-सोपक्रम. और निरुपक्रम जिसमें अकाल मृत्यु होती है, वह सोपक्रम आयुष्य है और जिसमें काल-मृत्यु होती है, वह निरुपक्रम आयुष्य है। शाश्वतवादी आयुष्य को निरुपक्रम मानते हैं। उनके अनुसार अकाल मृत्यु नहीं होती। वे ही लोग ऐसा मान सकते हैं - 'स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा' – जीवन के प्रारम्भ में ही क्यों, धर्माचरण तो जीवन के अन्तकाल में किया जा सकता है। जो जीवन को पानी के बुदबुदे की भांति अस्थिर मानते हैं, वे ऐसा कभी नहीं सोच सकते।
२४. शरीरभेद ( सरीरस्स भेए)
चूर्णिकार ने यहां एक कथा का उल्लेख किया है—एक राजा ने अपने राज्य में म्लेच्छों का आगमन जानकर पूरे जनपद में यह घोषणा करवाई कि नगर के सभी स्त्री-पुरुष दुर्ग में आ जाएं। वहां उनकी सुरक्षा होगी। कुछेक व्यक्ति तत्काल ही दुर्ग में आकर सुरक्षित हो गए । कुछेक व्यक्ति घोषणा के प्रति यान न दे, अपने परिग्रह — धन, धान्य, मकान आदि में आसक्त होकर वहीं रह गए। देखते-देखते म्लेच्छ आए और वहां अवस्थित व्यक्तियों को मारकर उनका धन लूट ले गए। जो दुर्ग
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उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ १२२ : अत्राह चोदकः --- सक्कते मुहुत्तं दिवसं वा अप्पमादो काउं, जं पुणं भण्णति 'पुव्वाणि वासाणि चरप्पमत्तो', एवतियं कालं दुःखं अप्पमादो कज्जति, तेण पच्छिमे काले अप्पमादं करेस्सामि ।
२. वही, पृष्ठ १०२, १२३ ।
३. वही, पृष्ठ १२३ : के य सासयवादिया उच्यते, ये निरुव्वक्कमायुणो, ण
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अध्ययन ४: श्लोक ६-१० टि० २२-२६
में थे, वे बच गए। म्लेच्छों के चले जाने पर वे आए और अपने स्वजनों को मरा देखकर तथा वैभव को नष्ट जानकर रोते-बिलखते रहे। *
२५. विवेक को प्राप्त (विवेगमेउं)
विवेक का सामान्य अर्थ है-पृथक्करण। प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ है—आसक्ति का परित्याग और कषायों का परिहार ।
सूत्रकार का अभिप्राय है कि कोई भी प्राणी विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता। कर्मों की क्षीणता होते-होते, पूरी सामग्री की उपलब्धि होने पर वह प्राप्त होता है । ऋषभ की जन्मदात्री मरुदेवा माता को तत्काल विवेक प्राप्त हो गया था। यह आपवादिक घटना है और इसे एक आश्चर्यकारी विशिष्ट घटना ही माना है। ऐसी तीव्र अभीप्सा विरलों में ही होती है । अतः इसे सामान्य नियम नहीं माना जा सकता। 'विवेक तत्काल हो नहीं सकता' इसको बताने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है
एक ब्राह्मण परदेश गया और वहां वेद की सभी शाखाओं का पारगामी होकर घर लौटा। एक दूसरे ब्राह्मण ने इसकी बहुश्रुतता से आकृष्ट होकर अपनी सुलालित पालित पुत्री का विवाह इससे कर डाला। लोगों ने उसे प्रचुर दक्षिणा दी। धीरे-ध धीरे धन बढ़ा और वह धनाढ्य हो गया। इसने अपनी पत्नी के लिए स्वर्ण के आभूषण बनाए। वह सदा आभूषणों को पह रहती। एक दिन ब्राह्मण बोला- हम इस सीमावर्ती गांव में रह रहे हैं। यहां चोरों का भय रहता है। तुम केवल पर्व दिनों में इन आभूषणों को पहनो तो अच्छा रहेगा, क्योंकि कभी चोर आ भी जाएं तो तुम इनकी सुरक्षा नहीं कर सकोगी। वह बोली- ठीक है । पर जब चोर आएंगे तब मैं इन्हें तत्काल उतार कर छुपा लूंगी। आप चिन्ता न करें।
एक बार उसी गांव में डाका पड़ा। लुटेरों ने इस ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया और आभूषणों से अलंकृत उसकी पत्नी को पकड़कर गहने खोलने लगे। वह पौष्टिक भोजन की निरंतरता से अत्यधिक स्थूल हो गई थी। पैरों के कड़े, हाथ के कंगन नहीं निकले। चोरों ने उसके हाथ-पैर काटकर गहने ले भाग गए। *
२६. मोक्ष की एषणा करने वाले (महेसी)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मोक्ष की इच्छा करने वाला किया है। बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं —महर्षि और मोक्ष की इच्छा करने वाला।
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तु जेसिं फेणबुब्बुय भंगुराणि जीविताणि, अथवा सासयवादो णिण्ण अप्पमत्तो कालो मरतो जेसिं एसा दिट्ठी, जो पुव्वमेव अकयजोगो सो । वही, पृष्ठ १२३ ।
सुखबोधा, पत्र ६७ ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२४ : महंतं एसतीति महेसि, मोक्षं इच्छतीत्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र २२५ ।
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