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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २: श्लोक २० टि० ३२-३५
यह उन्नीसवां श्लोक पूर्ववर्ती श्लोक का पूरक है। दुष्टता का भान हुआ। उपद्रव मिटा। वह तत्काल गुरु-चरणों में ३२. चर्या परीषह
आकर बार-बार क्षमायाचना करने लगा। उसने कहा-आप ही कोल्लकर नाम का नगर था। वहां बहश्रत स्थविर मेरे तारक हैं। आगे फिर मैं ऐसा आचरण नहीं करूंगा। आचार्य आचार्य संगम अपने अनेक साधुओं के साथ निवास कर रहे ने उसे आश्वस्त किया। शिष्य को ग्रंथकार के वचनों की स्मृति थे। वे वहां स्थिरवासी थे। वे सब निरंतर अपनी चर्या में पूर्ण हो आई। वह गुनगुनाने लगाजागरूक थे और आगमों के अनुसार चर्या का पालन करते थे।
निम्ममा निरहंकारा,, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। एक बार उनका शिष्य दत्त लंबे समय के बाद वहां आया और
एगक्खेत्ते वि ठिया, खवंति पोराणयं कम्म।। अपने स्थिरवासी आचार्य को देख उसने सोचा, ओह! ये तो
जो मुनि ममत्व और अहंकार से शून्य होते हैं, जो संयम,
तप और चारित्र में जागरूक रहते हैं, वे नियतवासी होने पर 'नियतवासी' बन गए हैं। मुझे यहां नहीं ठहरना चाहिए। वह
भी, एक क्षेत्र में रहने पर भी, अपने कर्मों का क्षय कर देते हैं।' अन्यत्र ठहरा। आचार्य भिक्षावेला के समय ऊंच-नीच कुल
निगमन-आचार्य संगम ने चर्या परीषह को समभाव से में गोचरी करने गए। वह भी उनके साथ हो गया। कालदोष
सहा। से उस दिन आचार्य को अन्त-प्रान्त भोजन मिला। आचार्य
३३. चपलताओं का वर्जन करता हुआ (अकुक्कुओ) निस्संगभाव से आहार लेते हुए अनेक घरों में घूमते रहे। शिष्य
बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंआकुल-व्याकुल हो गया। उसने अंट-संट बोलना प्रारम्भ कर
(१) अकुक्कुचः और दिया। आचार्य उसको शान्त करने के लिए एक धनी के घर में
(२) अकुत्कुचः। गए। वहां गृहपत्नी रेवती अपने बच्चे को उठाए खड़ी थी। वह
इनके क्रमशः अर्थ हैंबच्चा छह मास से रोता था। एक पल के लिए भी रुदन नहीं
(१) अशिष्ट चेष्टाओं से रहित। रुकता था। आचार्य भीतर गए। रोते हुए लड़के के समक्ष चुटकी
(२) हाथ-पैर को अनुचित रूप से न हिलाने वाला। बजाई और उसने रोना बंद कर दिया। घरवाले प्रसन्न हुए।
३४. श्मशान....अथवा वृक्ष के मूल में (सुसाणे.. उन्होंने आचार्य को परम अन्न से प्रतिलाभित किया। शिष्य
रुक्खमूले) प्रसन्न हो अपने निवास स्थान पर आ गया। आचार्य छोटे-बड़े सोनियाले स्थान पर आए। सबने भोजन किया। साय विचार कई अध्ययनों में किया गया है। देखें--१५१४; १६ सू.
मुनि को किस प्रकार के स्थान में रहना चाहिए इसका प्रतिक्रमण के समय आचार्य ने उससे कहा-कृत की आलोचना
३ श्लो. १; ३२।१२, १३, १६; ३५/४-६। श्मशान, शून्य-गृह करो। उसने कहा-मैं तो आपके साथ ही घूमा था। आप
और वृक्ष-मूल ये सब एकान्त स्थान के उदाहरण मात्र हैं। आलोचना करें। आपने अमुक घर से धातृपिण्ड लिया है। यह अकल्प्य है। आचार्य बोले-दूसरों के अति सूक्ष्म छिद्र भी तुम
श्मशान और वृक्ष-मूल में मुख्यतया विशिष्ट साधना करने वाले देख लेते हो। वह बोला-यह असत्य है। कहा है--मनुष्य के
मुनि ही रहते हैं। पास अपने दोष देखने के लिए एक आंख भी नहीं है, किन्तु
'सुसाण'-यह श्मशान के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है। परदोषों को देखने के लिए वह सहस्राक्ष हो जाता है
कई बौद्ध-भिक्षु भी श्मशान में रहने का व्रत लेकर चलते एक्कं पि नत्थि लोयस्स लोयणं जेण नियह नियटोसे। थे। उनका यह व्रत 'श्मशानिकांग' कहलाता है। यही ग्यारहवां परदोसपेच्छणे पूण, लोयणलक्खाई जायंति।। 'धुताग' है।'
शिष्य आचार्य को छोड़कर दूसरे कमरे में चला गया। कई बौद्ध-भिक्षु वृक्षों के नीचे भी रहते थे। वे छाए हए रात का समय। भयंकर तूफान। सघन अंधकार। वह डरा। घरों में नहीं रहते थे। उनका यह व्रत 'वृक्षमलिकांग' कहलाता उसने आचार्य को पुकारा। आचार्य ने कहा-इधर आ जाओ। है। यही नौवां 'धुतांग' है।' वह बोला-कैसे आऊं? हाथ से हाथ नहीं दीख रहा है। ३५. दसरों को त्रास न दे (न य वित्तासए परं) सर्वत्र सूचीभेद्य अन्धकार व्याप्त है। आचार्य लब्धि-संपन्न थे। उन्होंने अपनी अंगुली आगे की। वह प्रज्वलित होकर मुनि की साधना विविध प्रकार की होती है। कभी-कभी आलोक बिखेरने लगी। शिष्य ने सोचा-ये कैसे गुरु? अपने वह श्मशान-प्रतिमा की विशिष्ट साधना स्वीकार कर श्मशान में पास दीपक भी रखते हैं। वह और अधिक रुष्ट हो गया। रात्री-निवास करता है। उस समय वहां विविध प्रकार के कुछ समय बीता। उसकी विवेक-चेतना जागी। उसे अपनी भयोत्पादक उपसर्ग होते हैं। मुनि उनसे भयभीत न हो। वह १. सुखबोधा, पत्र ३२।
३. दशवैकालिक, १०।१२। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२E : अकुक्कुचः-अशिष्टचेष्टारहितः ।
४. विशुद्धि मार्ग, पृ. ६०। ....यद्वा अकुक्कुए त्ति अकुत्कुचः...कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानो... ५. वही, पृ. ६०।
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